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इस शती के अन्य कवि मनरंगलाल', रामचन्द्र" और मल्ली' ने पद का व्यवहार अपनी पूजा काव्य-कृतियों में सफलतापूर्वक किया है ।
ana शती के पूजाकार भविलग्लन की 'श्री सिद्धपूजा भाषा' नामक पूजा रचना में इस छव के अभिवर्शन होते हैं । "
उन्नीसवीं शती के जैन कवियों की हिन्दी-पूजाओं में छप्पय छंद कासर्वाधिक प्रयोग शांतरस के लिए हुआ है ।
वर्णिक वृत्त :
अनंगशेखर
समान वर्ण वाले ause छन्द का एक भेद अनंगशेखर वृत्त है। "
हिन्दी में उत्साह, वीरता और स्तुति आदि के लिए अनंगशेखर वृत्त का व्यवहार दृष्टिगोचर होता है ।
१. श्री अथ सप्तर्षि पूजा, मनरंगलाल, संगृहीतग्रथ राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मैटिल वक्सं, हरिनगर, अलीगढ, संस्करण १६७६, पृष्ठ १४० ।
२. श्री सम्मेद शिखर पूजा, रामचन्द्र, संगृहीतग्रथ जैन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी नं० ६२, नलिनी सेठ रोड कलकत्ता-७ पृष्ठ १२८ ।
३. अंगक्षमा जिनधर्म, तनो दृढ़-मूल बखानो । सम्यक रतन संभाल, हृदय मे निश्चय जातो ॥ तज मिथ्या विष मूल और चित निर्मल ठानो । जिनधर्मी सो प्रीति करो, सब पातक मानो || रत्नत्रय गह भविक जन जिन आशा सम चालिये । निश्चयकर आराधना, करम- रास को जालिये ||
-श्री क्षमावाणी पूजा, महलजी, संगृहीत ग्रथ-ज्ञानपीठ पूजाजलि, अयोध्या प्रसाद गोयलीय, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, संस्करण १९५७ ई०, पृष्ठ ४०२ ।
४. श्री सिद्धपूजा भाषा, भविलालजू, संगृहीतग्रंथ - राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मैटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६०६ ई०, पृष्ठ ७१ ।
५. हिन्दी साहित्य कोश. प्रथम भाग, सम्पा० धीरेन्द्र वर्मा आदि, ज्ञानमण्डल लिमिटेड, बनारस, प्रथम संस्करण संवत् २०१५, पृष्ठ २८३ ।