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पूजा और श्री चम्पापुर क्षेत्र पूजा मानक पूजा बनानों में प्र कार उल्लिखित है।
इस प्रकार जन-हिनी-पूजा-काम्ब में व्यबहत उपमानों के माधार पर मह निष्कर्ष कप में कहा जा सकता है कि अपनी भावाभिव्यक्ति में उत्कर्ष उत्पन्न करने के लिए पूजा कवियों ने उपमा अलंकार का सफलतापूर्वक व्यवहार किया है। उपमालकार के विविध प्रयोगों-पूोपमा, सुप्तोपमामें इन पूजाकवियों द्वारा परम्परानुमोक्ति एवं नवीन उपमानों के सफल प्रयोग द्रष्टव्य हैं । उपमालंकार का सर्वाधिक प्रयोग अठारहवीं शती के पूजाकाव्य रचयिता व्यानतराय की पूजा कृतियों में न्यबहुत है । भाव की उत्कृष्टता के अतिरिक्त भावाभिव्यंजना में कविवर दयानतराय को पेष्ट सफलता मिली है। उत्प्रेक्षा
जन-हिन्दी-पूजा-काव्य में उत्यमा अलंकार का व्यवहार उन्नीसवीं शती से परिलक्षित है। इस शती के उस्कृष्ट पूजा काव्य के रचयिता बावन ने 'श्रीचन्द्रग्रम जिनपूजा' नामक पूजाकाव्य कृति में बस्तुरबालंकार को यजित किया है इस शती के अन्य कविवर मनरंगलाल की पूजाकृति
१. चन्द्र किरण सम उज्ज्वल लीजे,
ममत स्वच्छ सरल गुण खान ।
-श्री नेमिनाथ जिनपूजा, पिनेश्वरदास, संग्रहीत अंब-जंन पूजा पाठ मंग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं. ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकसा-७,
पृष्ठ १११। २. मणि ति सम खण्ड विहीन तंदुल लै नीके।
-श्री चम्पापुर सिद्ध क्षेत्र पूजा, दौलतराम, संग्रहातपंथ जनपूजा पाठ संग्रह, भागबन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ
३. सित कर में सो पय-धार देत,
मानो बांधत भव-सिंधु-सेत ।
-श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजा, ददावन, संगृहीतष-ज्ञानपीठ पूजांजलि, अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोर, बनारस, १९५७ ई०, पृष्ठ ३३७।