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तजन्य हास्य रस की निष्पति हुई है।' इसी प्रकार 'श्री सुमति नाथ जिनपूजा' मैं कवि हृदय हर्षानुभूति कर उठता है ।"
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मठारहवीं जन्मीसवीं शती की भाँति बोसवीं शती में प्रणीत पूजा• काव्य में रसो के को स्थिति में कोई अन्तर परिलक्षित नहीं होता । पूजा की सम्पूर्ण भावना निवें दजन्य शान्तरस में निष्पन्न होती है। इस शती में 'श्री महावीर स्वामी जिनपूजा' के 'अष्ट द्रव्य अघर्य' प्रसंग में संयोग श्रृंगार का उद्र ेक निवृत्ति मूलक हुआ है ।"
१. तज के सर्वारथ सिद्ध थान, मरु देव्या माता कूख आन । तब देवी छप्पन जे कुमारि, ते आई अति आनंद धारि ॥ ते बहुविध ऊंचा सेवठान, इन्द्राणी ध्यावत हर्षमान ||
में काम प्रधान
- श्री ऋषभनाथ जिन पूजा, वख्तावररत्न, संगृहीतग्रंथ - चतुर्विज्ञति जिनपूजा, प्रकाशक -- बीर पुस्तक भंडार, मनिहारो का रास्ता, जयपुर पौष० सं० २०१६, पृष्ठ १२ ।
२. बाय के शची जिनंद गोद में लिये तबै । जान के सुरेन्द्र देख मोद में भये जब ॥ नाग में सवार कीन्ह स्वर्णशैल पे गये । न्हौन को उछाह ठान हर्ष चित में भये ।। देख रूप आपको अनंग बीनती लही । इन्द्र चंद्र वृन्द आन शरण चर्ण की गही ||
-श्री सुमतिनाथ जिनपूजा, संगृहीत ग्रंथ - चतुर्विंशति जिनपूजा, प्रकाशकवीर पुस्तक भंडार, मनिहारों का रास्ता, जयपुर, पौष सं० २०१८, पृष्ठ ४१-४२ ।
३. क्षीरोदधि से भरि नीर कंचन के कलशा । तुम चरणनि देत चढ़ाय आवागमन नशा || चांदनपुर के महावीर तोरी छवि प्यारी । प्रभु भव आताप निवार तुम पद बलिहारी ||
---श्री चांदनगांव महावीरस्वामी पूजा, पूरणमल, संग्रहीत ग्रंथ जैन पूजापाठ संग्रह, प्रकाशक - भागचन्द पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोहकलकत्ता-७, पृष्ठ १५१ ।