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( १९७ ) विस्मयकारी भावनामों के बोतप्रोत हो जाता है। प्रमु-प्रभुता का पित बन करता वा उसका यह मनोभाव शान्तरस में मग्न होता
उन्नीसवीं शती में तीर्थकर महावीर स्वामी पूजा के 'अपनाता' बंग में उत्साह से युक्त पुश्वार्थ भाव तन्नन्य बोर रस का उनके हुमा है । बन्ततोगस्था प्रजक के हरप में यह वीर रसात्मक अनुभूति शान्तरस में परिणत हो जाती है।
'बी ऋषमनाथ जिनपूजा' में पूजक भगवान के गर्म कल्याणक के अबसर पर छप्पन कुमारियों और इन्द्राणी के द्वारा हर्षोल्लास अनुष्ठान पर बानब
१. सोलह कारण भाय तीर्थकर जे भये ।
हरष इन्द्र अपार मेरु पे ले गये ॥ पुजा करि निज धन्य लख्यो बह चाव सों। हमहू षोड़श कारण भावें भावसों ।।
-श्री सोलहकारण पूजा, धानतराय, संग्रहीत ग्रंथ-जैन पूजा पाठ संग्रह, प्रकाशक-भागचन्द्र पाटनी, नं०६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ ५६ ।
२. पुनि नाचत रंग उमंग भरी, तुम भक्ति विषे पगएम धरी ।
मननं अननं शननं झननं, सुरलेत तहाँ तननं सननं ॥ घनन घननं धन घंट बजे, हमदं दमदं मिरदंग सजे । गगनांगन गर्भगता सुगता, ततता ततता अतता वितता ।। धगतां गतां गति बाजत हैं, सुरताल रसाल जु छाजत है । सननं सनम सननं नभ में, इक रूप अनेक जुधार भ्रमे ।। कई नारि सुबीन बजावति है, तुमरो जसि उज्वल गावति हैं। करताल विषे कर ताल धरें, सुरताल विशाल जु नाद करें। इन आदि अनेक उछाह भरी, सुर भक्ति करें प्रमुजी तुमरी । . तुम ही जग जीवन के पितु हो, तुम ही बिन कारन ते हित हो ।।
-श्री महावीर स्वामी पूजा, वृन्दावन, संग्रहीत पंप-राजेश नित्य पूषा पाठ संग्रह प्रकाशक-राजेन्द्र मेटिल बक्स, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ १३७-१३८ ।