________________
( १४४ )
तथा साधु में से एक परमेष्ठी विशेष होता है । ये गुरु रत्नत्रय के धारक जीवन-कल्याणक तथा प्रदर्शक होते हैं।" अपने इन्हीं गुणों के कारण भक्त्यात्मक प्रसंगों में गुरु की वंदना की गई है।
वस्तुत: नग्न दिगम्बर साधु को गुरु कहते हैं । गुरु सदा ममयान, स्वाध्याय में लीन रहते हैं। सर्वप्रकार के आरम्भ-परिग्रह से सर्वदा रहित होते हैं। विषय-भोगों की लालसा उनमें लेशमात्र भी नहीं होती। ऐसे तपस्वी साधुओं को गुरु कहते हैं ।"
पंचपरमेष्ठी (श्री पंच परमेष्ठी पूजन)*
परमश्चासोहष्टी परमेष्ठी । परमेष्ठिन शब्द सेग्रीषु प्रत्यय लगाकर परमेष्ठी शब्द बना । परमेव्योम्नि चिवाकोशे ब्रह्मपदेव तिष्ठतीति अर्थात् आकाश में स्थिति ब्रह्मपद पदाधिष्ठित ब्रह्म विशेष | तीस अक्षरों से युक्त परमइष्ट समाहार समुदाय ही परमेष्ठी है।" परमेकियों को नमस्कार करने की प्रथा है। इसे जैन साहित्य में नवकार मन्त्र १. 'सुस्सूसया गुरुणं सम्यक्-दर्शनज्ञान चारित्र गुरुतया मुख इत्युचयन्ते आचार्योपाध्याय साधव' ।
- भगवती आराधना । ३०० | ५११ । १३, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, २०२८, पृष्ठांक २५१ । २ पंचमहाव्रतकलिका मद मचनः क्रोधः लोभ भय व्यक्त ।
एय गुरुं रिति भव्यते तस्माज्जानीहि उपदेशं ॥
ज्ञानसागर । ५ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, २०२८, पृष्ठांक २५१ ।
३. विषयाशावशातीतो, निरारंभी उपरिग्रह. ।
ज्ञानध्यानतपो रक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥
--रत्नकरण्ड श्रावकाचार, आचार्य समन्तभद्र, प्रकाशक- माणिक चन्द्र दिगम्बर जैन ग्रंथमाला, हीराबाग, बंबई, वि० सं० १९८२, छंदांक १०, पृष्ठ ८ ।
४. श्री पचपरमेष्ठी पूजन, राजमल पर्वया, संगृहीत ग्रंथ-ज्ञानपीठ पूजांजलि, प्रकाशक- भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस-१, संस्करण १९६९ पृष्ठ १२७ ।
५. पणतीस सोल छप्पण चउदुगमेगं च जबह भाषणु ।
परमेठिटवाचयाणं अण्णं च गुरुवएसेण ॥
- बृहद्रव्य संग्रह, नेमिचन्द्राचार्य, श्री मदराचन्द्र जैन शास्त्र माला, आगास, २०२२, श्लोक संख्या ४९, पृष्ठांक १८७ ।