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भवभय भीत भविकजन सरणे आइया । रत्नत्रय - लच्छन सिव पंथ लगाइया ॥'
थाल में स्थापना - संरचना -
छन्मे से पूजा के पात्रों को साफ करना चाहिए। सबसे पहिले स्थापनापात्र ( ढोना) पर स्वास्तिक चिह्न ( 5 ) चन्दन अथवा केशर से लगाना चाहिये । जल चन्दन चढ़ाने वाले कलश पात्र पर स्वास्तिक चिह्न लगाना चाहिये । महाघं को थालिका के अतिरिक्त दूसरी पालिका ( रकेबी) में स्वास्तिक चिह्न लगाना चाहिये तथा बड़े थाल में क्रमशः बीच में तीन स्वास्तिक चिह्न देव, शास्त्र और गुरु के प्रतीकार्य रचना चाहिये । बीच वाले स्वास्तिक बिहन के ऊपर तीन बिन्दुओं को संरचना सम्यक् वर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र्य के लिए करनी होती है । ate के स्वास्तिक चिह्न के चारों ओर दश बिन्दुओं की रचना करनी चाहिये जो दिक्पालों के प्रतीक रूप होते हैं। वर्शन, ज्ञान, चारित्र बिन्दुओं के ऊपर एक अर्द्ध चन्द्रिका की रचना करनी चाहिये जो मोक्ष-स्थली का प्रतीक है। शास्त्र जी नामक स्वास्तिक चिह्न के नीचे एक स्वास्तिक चिह्न बनाना चाहिये जो बीस तीर्थकरों की पीठिका का प्रतीक है। इस स्वास्तिक चिन और देव स्वस्तिका के मध्य एक अर्धचन्द्रिका की संरचना होनी चाहिये जो अकृत्रिम चैत्यालयों की प्रतीक है। देव स्वस्तिका और मोक्षस्थली के बीच में एक अर्द्धचन्द्रिका बनानी चाहिये जो सिद्धालय को प्रतीक है । इसी प्रकार गुरु और मोक्ष स्थलों के मध्य एक अर्द्धचन्द्रिका बनानी आवश्यक है जो चोबीस तीर्थंकरों को पीठिका का प्रतीक है और अन्त में गुरु और नीचे बने स्वस्तिक चिह्न के बीच में अर्द्धचन्द्रिका की रचना आवश्यक है जो पूजन करने वाली वेदी पर विराजमान प्रभु स्थलो का प्रतीक है । बड़े
१ पंचमंगलपाठ, कविवर रूपचंद, सगृहीत ग्रंथ-ज्ञानपीठ पूजांजलि, प्रकाशकभारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, प्रथम संस्करण, १६५७ ई०, पृष्ठ १०२-१०४ ।