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(..) माने गए हैं।' समूचे कर्म-कुल भय होने पर वस्तुतः मोक-वशा प्राप्त होती है। जब सम्पूर्ण कर्मों का बुझना होता है तभी निर्वाण अवस्था कहलाती है। जैन धर्म के अनुसार जितने भी निर्वाण प्राप्त कर्ता है उनकी भक्ति वस्तुतः निर्वाण भक्ति कहलाती है। इस भक्ति का माहात्म्य संसार-सागर से पार कराने की शक्ति-सामर्थ्य में निहित है। इसीलिए इसे तीर्थ भी कहा गया है। चौबीस तीर्थकर पांच क्षेत्रों से निर्वाण को प्राप्त हुए। आध तीर्थकर अषमनाव कैलाश, भ० वासपूज्य चम्पापुर, ० नेमिनाय गिरिनार, म. महावीर पावापुर क्षेत्र से निर्वाण को प्राप्त हुए और शेष सभी तीर्थंकर श्री सम्मेद शिखर से मोक्ष को गए अस्तु ये सभी निर्वाण-क्षेत्र बंदनीय हैं।
जन-हिन्दी-पूजा काव्य परम्परा में कविवर द्यानतराय विरचित निर्वाण क्षेत्र-पूजा काव्य में चौबीस तीर्थंकरों के निर्वाण स्थलों को सिख भूमि कहा
१. जैन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि, डॉ. प्रेमसागर जैन, भारतीय ज्ञानपीठ
काशी, प्रथम संस्करण सन् १९६३, पृष्ठ १२४ । २. 'कृत्स्य कर्म विप्रमोक्षो मोक्षः।'
-तत्त्वार्यसूत्र, उमास्वामी, सम्पादक पं. कलाशचन्द्र जैन, भारतीय दिगम्बर जैन संघ, चौरासी, मथुरा, प्रथम सस्करण वि० सं० २४७७,
पृष्ठ २३१ । ३. निर्वात स्म निर्वाण, सुखीभूत अनन्त सुखं प्राप्तः ।
-जिन सहस्रनाम, पं० आशाधर, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, काशी
प्रथम संस्करण, सन् १९५४, पृष्ठ ६८ । ४. 'तीर्यते संसार-सागरो येन तत्तीर्थम्'
-सहस्रनाम, पं आशाधर, सम्पादक पं० हीरालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथम संस्करण, वि० सं० २०१० पृष्ठ ७८ । अछावयमि उसहो चपाये वासुपूज्य जिणणाहो। उज्जते मिजिणो पावाए णिव्वुदो महावीरो॥ वीसं तु जिणवरिंदा अमरासुरवदिदा धुदकिलेसा । सम्मेदे गिरिसिहरे णिवाणगया णमो तेसि ।। -निर्वाण भक्ति, आचार्य कुन्दकुद, दशभक्त्यादि संग्रह, पं० सिद्धसेन जैन गोयलीय, सलाल, सावरकांठा, गुजरात, प्रथम संस्करण वी० नि० सं० २४८१, पृष्ठ २०२।