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करना होता है। यह प्रक्रिया वस्तुतः समाधि भक्ति कहलाती है। इस समाधि भक्ति में रत्नत्रय को निरुपण करने वाले शुद्ध परमात्मा के ध्यान स्वरूप शुद्ध आत्मा की सदा अर्चा करता है, पूजा करता हूं, बंदना करता हूँ और नमस्कार करता हूँ। फलस्वरूप दुख और कर्म-कुल का कटना होगा। रत्नत्रय को प्राप्त कर सत्गति प्राप्त होगी।
जैम-हिन्दी-पूजा काब्य परम्परा में आचार्य श्री शांतिसागर विषयक पूजा काव्यकृति में कविवर सुधेश ने उसके जयमाल अंश में समाधिभक्ति का सन्दर विवेचन किया है। पूजक भक्त समाधिभक्ति के संदर्भ में अपने में शक्ति अर्जन करने की बात करता है। निर्वाण भक्ति
जैन आगम में निर्वाणभक्ति और मोक्ष परस्पर में पर्याय वाची
१. जैन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि, डॉ० प्रेमसागर जैन, भारतीय ज्ञानपीठ,
काशी, प्रथम संस्करण १६६३, पृष्ठ १२१ । २. रयणत्तय परुव परमप्पज्झाणलक्खणं समाहि भत्तीये णिच्चकाल अंचेमि,
पूजेमि, वंदामि, णमसामि, दुक्खक्खयो, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं समाहि मरण, जिणगुण संपति होउ मज्झ । - समाधिभक्ति, दशभक्त्यादि संग्रह, सिद्धसेन जैन गोयलीय, अखिल विश्व जैन मिशन, सलाल, साबरकांठा, गुजरात, प्रथम संस्करण वी०नि०
स० २४८१, पृष्ठ १८८। ३. होने नही पाया तुम्हें शैथिल्य का अभ्यास ।
समता सहित पूरे किए छत्तीस दिन उपवास ॥ फिर 'ओउम् नमः सिद्धः' कह दी त्याग अंतिमश्वास । तुम धन्य हुए, धन्य वे जो थे तुम्हारे पास ।। जो धन्य, भादव शुक्ल-द्वितीया का सुप्रातः काल ! हे शांतिसागर ! मै तुम्हारी गा रहा जयमाल । यो इगिनी समाधि की जिन शास्त्र के अनुकूल । होंगे अवश्य सात भव में कर्म अब निर्मूल ।। तुम सी मुझे भी शक्ति दे तब पदकमल की धूल ॥ जिससे भवोदधि पार कर पाऊँ स्वयं वह फूल ।।। आया नहीं करते जहाँ पर कर्म के भूचाल । हे शांति सागर मैं तुम्हारी गा रहा जयमाल || --आचार्य शांति सागर पूजन, सधेश जैन, सुधेश साहित्य-सदन, नागौर म०प्र०, प्रथम संस्करण १६५८, पृष्ठ ७॥