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(२) जिनके कल्याणक नहीं मनाए जाते वे सामान्य अर्हन्त कहलाते हैं । ये सभी सनत्व युक्त होते हैं अतः उन्हें केवली कहा गया है।'
सिर-शरीर रहित अर्थात् देह मुक्त महन्त वस्तुतः सिड कहलाते हैं।
आचार्य-१०८ गुणों का धारी निर्मन्य दिगम्बर साधु जो अनुभवी तथा जिसमें अन्य साधुओं को दीक्षित करने की सामर्थ्य होती है वस्तुतः भाचार्य कहलाते हैं।
उपाध्याय-पंच परमेण्ठियों में उपाध्याय का क्रम चतुर्य है। जीवन का परम लक्ष्य-मोक्ष प्राप्त्यर्ष उपाध्याय के संरक्षण में जिनवाणी का स्वाध्याय करना होता है।
साधु-जिन दीक्षा में प्रवजित प्राणी वस्तुतः साधु कहलाता है।' अवधि मानी, मनः पर्ययमानी और केवल ज्ञानियों को साधु अथवा मुनि कहते हैं।' मनन मात्र भाव स्वरूप होने से मुनि होता है। १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, ९० जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली,
प्रथम संस्करण सं० २०२७, पृष्ठांक १४०।। २ अपभ्रंश वाइमय में व्यवहृत पारिभाषिक शब्दावलि, आदित्य प्रचण्डिया
दीति, महावीर प्रकाशन, अलीगंज (एटा) उ० प्र०, १६७७, पृष्ठ ६ । ३. हिन्दी जैन काव्य में व्यवहृत दार्शनिक शब्दावलि और उसकी अर्थव्यञ्जना
कु० अरुणलता जैन, पी-एच. डी. उपाधि के लिए आगरा विश्वविद्यालय
द्वारा स्वीकृत शोधप्रबन्ध, १९७७, पृष्ठ ६१३ । ४. अरूहा सिदायरिया उज्माया साह पंच परमेठी।
ते बिहु चिट्ठहि आधे तम्हा आदा हुमे सरणं ॥ -मोक्ष पाहुड, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, क्षु० जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय
ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, प्र० सं० २०२६, पृष्ठांक २३ । ५. देत धरम उपदेश नित रत्नत्रय गुणवान ।
पच्चीस गुणधारी महा उपाध्याय सुखखान । श्री पंचपरमेष्ठी पूजा, सच्चिदानन्द, नित्य नियम विशेष पूजन संग्रह, ७० पतासीबाई, दि० जैन उदासीन आश्रम, ईसरी बाजार, हजारीबाग,
प्रथम संस्करण २४८७, पृष्ठ ३२ ।। ६. अपभ्रंश वाङ्मय में म्यवहृत पारिभाषिक शब्दावलि, आदित्य प्रचण्डिया
दीति, महावीर प्रकाशन, अलीगंज (एटा) उ० प्र०, १६७७, पृष्ठ ६ । ममन मात्र भाव तया मुनिः। -~-समय सार, आचार्यकुन्दकुन्द, प्रकाशक-श्री कुन्दकुन्द भारती, ७-ए, राजपुर रोड, दिल्ली-११०००६, प्रथम आवृति, मई १९७८, पृष्ठ ११२।