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( १ )
सम्यक ज्ञान प्राप्त करने के लिए आपकी पूजा करता हूँ । कवि का विश्वास है कि उसे आचार्य भक्ति द्वारा सम्यक ज्ञान की प्राप्ति हो सकेगी ।"
पंचपरमेष्ठि भक्ति---अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा सर्व साधुजनों का समीकरण वस्तुतः पंचपरमेष्ठि कहा जाता है। साधु से अरहन्त तक उत्तरोतर गुणों की अभिवृद्धि के कारण यह क्रम उल्लिखित है । यद्यपि सिद्ध ष्ठ हैं तथा उनके द्वारा लोकोपकार की सम्भावना नहीं रहती है । अस्तु अरहन्त का क्रम प्रथम रखा गया है ।" यहां संक्षेप में इन गुणधारियों की शक्ति स्वरूप की चर्चा करना असंगत न होगा
अर्हन्त --- अहं पूजयामि धातु से अर्हन्त शब्द का गठन हुआ है। इसके अर्थ पूज्यभाव के लिए पूजाकाव्य में प्रयुक्त हैं। चार घातिया कर्मों का नाश कर अनन्त चतुष्टय को प्राप्त कर जो केवल ज्ञानो परम आत्मा अपने स्वरूप में स्थिर है, वह वस्तुतः जरा, व्याधि, जन्म-मरण चतुर्गति विर्षगमन, पुण्यपाप इन दोषों को उत्पन्न कराने वाले कर्मों का शमन कर केवल ज्ञान प्राप्त करना बस्तुतः अर्हन्त के प्रमुख लक्षण हैं।"
अर्हन्त के दो भेद किए गए हैं - यथा- (१) तीर्थकर (२) सामान्य । विसे पुण्य सहित अर्हन्त जिनके कल्याणक महोत्सव मनाए जाते हैं और
१. तुमने पड़ने दी न हृदय पर सुख भोगों की छाया भी ।
अतः तुम्हारी विरति देखकर रतिपति पास न आया भी ।। और विकृति का हेतु न जब बन सकी दिगम्बर काया भी । तो रति ने भी मान पराजय तुम्हें अजेय बताया ही ॥ तथा वासना ने हो असफल निज मुख मुद्राम्लान की । पुष्पों से मैं पूजन करता, दो निधि सम्यक् ज्ञान की ॥
- श्री आचार्य शान्ति सागर पूजन, सुधेश जैन, सुधेश साहित्य सदन, नागौद, म० प्र०, प्रथम संस्करण १९५८, पृष्ठ ३ ।
२. अनन्त चतुष्टय के धनी छियालीस गुणयुक्त ।
नहुँ त्रियोग सम्हार के अर्हन जीवन्मुक्त ।।
- श्री पंचपरमेष्ठि पूजा, सच्चिदानंद, नित्यनियम विशेष पूजन संग्रह, ब्र० पतासी बाई, श्री दि० जैन उदासीन आश्रम, ईसरी बाजार, हजारीबाग, प्रथम संस्करण वि० सं० २०१७, पृष्ठ ३१ ।
३. जरबाहि जम्ममरणं चउ गए गमणं च पुण्ण पावंच ।
हम दो सकम्मे हुड णाण मयं च बरहंतो ॥
- अष्टपाहुड, कुंदकुन्दाचार्य, गाथांक ३०, श्री पाटनी दि० जैन ग्रन्थ माला, मारोठ, मारवाड़, पृष्ठ १२८ ।