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(८४) के दुदुभि संवत्सरोंमें 'दुल्लकपुर' नामके नगरमें समाप्त हुआ है। यह दुल्लकपुर नगर आज कल कहाँ है यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका।
प्रशस्ति में उल्लिखित भ० सकलचन्द्र ही माधवचन्द्र विद्यदेवके गुरु जान पड़ते हैं, जो मुनिचंद्रसूरिके शिष्य थे। प्रस्तुत सकलचन्द्र वे भट्टारक ज्ञात होते हैं जिनका उल्लेख श्रवणबेल्गोलके शिलालेग्व नं. ५० में पाया जाता है जो लगभग शक सं० १०६८ का लिखा हुआ है । इसमें अभयनन्दीके शिष्य सकलचन्द्रको सकलागममें निपुण बतलाया है । हो सकता है कि इन सकलचन्द्र के साथ क्षपणासारके कर्ताका कोई सामंजस्य बैठ सके । अथवा क्षपणासारके कर्ताके गुरु कोई भिन्न ही सकलचन्द्र हों। रुपणासार गद्यकी प्रति जयपुरके तेरापंथी मन्दिरके शास्त्रभण्डारमें सं. १८१८ को लिखी हुई है।
माधवचन्द्र विद्यदेव नामके कई अन्धकार हो गए हैं। जिनमें एक माधवचन्द्र विधदेव वे हैं जो प्राचार्य नामचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीक शिष्य थे और जिन्होंने त्रिलोकसारकी संस्कृतटीका लिखी है और माधवचन्द्र द्वारा रचित कतिपय गाथाएँ भी त्रिलोकसारमें आचार्य नेमिचंद्रकी सम्मतिसे मूलग्रंथमें यत्र तत्र समाविष्ट की गई है। प्राचार्य नेमिचन्द्रका समय विक्रमको ११वों शताब्दी सुनिश्चित है; क्योंकि राजा राचमल द्वितीयके मंत्री और प्रधान सेनापति चामुण्डरायने अपना पुराण शक स. ६०० (वि० सं० १०३५) में समाप्त किया है। अतः यही समय उनक शिष्य माधवचन्द्र त्रिविद्यदेवका है। पर नेमिचन्द्रके शिष्य माधवचन्द्र विद्य इस क्षपणासारके कर्तासे भिन्न जान पड़ते हैं । वे एक नहीं हो सकते ; क्यों कि इन दोनोके समयमें १२५ वर्षके करीबका अन्तर पडता हैं । इनके सिवाय, मुनिदेवकीर्तिके शिष्य माधवचन्द्रवती और शुभचन्दके शिष्य माधवचन्द्र इन दोनोंसे भी वह भिन्न प्रतीत होते हैं, जिनका उल्लेख क्रमशः श्रवणबेलगोलके शिलालेख नं. ३६ और ४१ में पाया जाता है।
१ गुरुणेमिचन्द्रसम्मदकदिवयगाहा तर्हि तहिं रइया । माहवचंदतिविज्जेणियमणुमरणिज्ज मज्जेहिं ॥ .