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'पुराणसार' नामके प्रन्थों की हैं, जिनके कर्ता मुनि श्रीचन्द्र हैं, जो लालबाग संघ और बलात्कारगणके आचार्य श्रीनन्दीके शिष्य थे श्रीचन्द्र पण्डित प्रवचनसेनसे रविषेणाचार्यके पद्मचरितको सुनकर विक्रम सम्वत् १०८७ में सुप्रसिद्ध धारानगरीमें राजा भोज देवके राज्यकालमें पद्मafta' टिप्पणको बनाकर समाप्त किया है ।
इनकी दूसरी कृति 'पुराणसार' है जिसे उन्होंने उक्त धारा नगरीमें जयसिंह नामक परमार वंशी राजा भोजके राज्यकालमें सागरसेन मुनिले महापुराण जानकर वि० सं० १०८५ में अथवा इसके श्रास-पासके समय में रचा है। चूँकि प्रशस्तिमें लेखकोंकी कृपासे सम्वत् सम्बन्धी पाठ शुद्ध हो गया है। इससे आस-पास के समयकी कल्पना की गई है । इन दो कृतियोंके अतिरिक्त मुनि श्रीचन्द्रकी दो कृतियोंका पता और भी चलता है । उनमें प्रथम ग्रन्थ महाकवि पुष्पदन्तके उत्तरपुराणका टिप्पण है, जिसे उन्होंने सागरसेन नामके सैद्धान्तिकसे महापुराणके विषमपदोंका विवरण जानकर और मूल टिप्पणका अवलोकनकर उन टिप्पणकी रचना वि० सम्वत् १०८० में अपने भुजदण्डसे शत्रुराज्यको जीतने वाले राजा भोजदेवके राजकालमें की है १ ।
art कृतिका उल्लेख विक्रमको १३वीं शताब्दीके विद्वान पंडित श्राशाधरजीने भगवती आराधनाकी 'मूलाराधनादर्पण' नामक टीकाको ५८६ नम्बरको गाथाकी टीका करते हुए निम्न वाक्योंके साथ किया है'कूरं भक्त', श्रीचन्द्र टिप्पणके त्वेवमुक्त । अत्र कथयार्थप्रतिपत्तियथा चन्द्रनामा सूपकार इत्यादि । इससे स्पष्ट है कि पं० श्राशा
१ --- ' श्रीविक्रमादित्य संवत्सरे वर्षाणामशीत्यधिकसहस्रं महापुराणविषमपदविवरणं सागरसेन सैद्धान्तात्परिज्ञाय मूलटिप्पणिकां चालोक्य कृतमिदं समुच्चय टिप्पणं अज्ञपातभीतेन श्री संघा ( नन्या ) चार्य सत्कवि शिष्येण श्रीचन्द्रमुनिना निजदोर्दण्डाभिभूतरिपुराज्यविजयिनः श्रीभोजदेवस्य ।' -- उत्तरपुराण टिप्पण