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पद तथा संस्कृतका उक्त पाठ अभी तक अप्रकाशित ही हैं। रूपचन्द शतकमें सौ दोहे पाए जाते है जो बड़े ही शिक्षाप्रद हैं और विषयाभिलाषी भोगीजनोंको उनसे विमुख करानेकी प्रौढ़ शिक्षाको लिए हुए हैं। साथ ही मरूपके निर्देशक हैं ।
नेमिनाथरासा एक सुन्दर कृति है जिसे मैने सं० १९४४ में जयपुरमें मेरके भट्टारक महेन्द्रकोर्तिके ग्रन्थ-भण्डारको अवलोकन करते हुए एक hi देखा था और उसका आदि अन्त भाग नोट कर लिया था, जो इस प्रकार है.
पण विविपंच परमगुरु मरण-बच-काय ति-सुद्धि । नेमिनाथ गुण गावउ उपजै निर्मल बुद्धि || सोरठ देश सुहावनौ पुहमीपुर परसिद्ध रस-गोरस परिपूरनु धन-जन- कनक समिद्ध |
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रूपचन्द जिन विनवै, हो चरननिको दासु । मैं इय लोग सुहावनौ, विरच्यौ किंचित रासु ॥ ४६ ॥ जो यह सुरधरि गावहि, चितदे सुनहिं जि कान । मनवांछित फल पावहिं ते नर नारि सुजान ॥ ५० ॥
इनकी एक और नवीन रचना देहलीके शास्त्र भण्डारमें मुझे प्राप्त हुई थी उसका नाम है 'खटोलनागीत' । इस रूपक खटोलनागीतमें १३ पद्य दिये हुए हैं जो भावपूर्ण हैं और आत्मसम्बोधनकी भावनाको लिए हुए हैं, जिन्हें भावार्थ के साथ श्रनेकान्त वर्ष १० किरण २ में दिया जा चुका है । इन सब रचनाओं परसे विश पाठक पांडे रूपचन्दजीके व्यक्तित्वका अनुमान कर सकते हैं। उनकी रचनायें कितनी सरल और भावपूर्ण हैं इसका भी सहज ही अनुभव हो जाता है ।
१०८वीं प्रशस्ति 'सुखनिधान' नामक ग्रन्थकी है, जिसके कर्ता कवि जगन्नाथ हैं। जिनका परिचय २५वीं प्रशस्तिमें दिया गया है ।
१०वीं और ११वीं प्रशस्तियों क्रमशः पद्मचरितटिप्पण' और