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जिन सहस्रनामटीका - प्रशस्ति
तत्सम-तद्भव-देश्य - प्राकृतरूपाणि पश्यतां विदुषां । दर्पणति यमवनौ वृत्तिस्त्रैविक्रमी जयति ||१०|| प्राकृतरूपाणि यथा प्राच्यैररा हेम चन्द्रमाचार्यैः । विवृतानि तथा तानि प्रतिबिम्बन्तीह सर्वाणि ॥११॥ सिद्धिर्लोकाच् ||१|| ( प्रथमसूत्र )
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इति श्रीमदनन्दित्रैविद्यदेवश्रुतधर - श्रीपादप्रसादासादितसमस्त विद्याप्रभावश्रीमत्त्रिविक्रम देवविरचितप्राकृतव्याकरणवृत्तौ प्रथमाध्यायस्य प्रथमः पादः । [ नोट - इस ग्रन्थमें चार अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में पाणिनीय व्याकरणकी तरह चार पाद हैं । यह ग्रन्थ साङ्ग सिद्धशब्दानुशासन के कर्ता हेमचन्द्राचार्य से वादा और कालिदासके शाकुन्तलादि नाटकत्रय के व्याख्याता काटयबेमसे पहलेका बना हुआ है; क्योंकि इसमें हेमचन्द्र के उक्त ग्रन्थवाक्योंका उल्लेखपूर्वक खण्डन है और काटयबेमके व्याख्याग्रन्थों में इस ग्रन्थके सूत्रांका ही प्राकृतविषयमें प्रमाणत्वरूपसे निर्देश पाया जाता है, ऐसा श्रीचे कटरंगनाथ शर्माने इस ग्रन्थके प्रथम अध्यायकी भूमिका में प्रकट किया, जो सन् १८६६ में प्रेस विजिगापट्टमसे छपकर प्रकाशित हुआ है । ग्रन्थका अन्तभाग पासमें न होनेसे नहीं दिया जा सका । ]
६६. जिनसहस्रनाम - टीका ( श्रमर कीर्तिसूरि )
अन्तभाग :--
नत्वा जिनसेनाचार्यं विद्यानं [दं] समंतभद्रमर्हत | श्रीमत्सहस्रनाम्ना' "च्मि ससिद्धये ॥ ॥ अथ श्रीमज्जिनसेनाचार्यः चातुर्वर्ण्य सघसमुद्धरेण धीरः सकललोकनरोचनाकातः (१) खंडितापाखंडमंडलाहंकारः शुनिवचनविधीविचितfreeमत्कारः स्वर्गापवर्गपुर मार्गस्पंदनः चारुचारित्रचमत्कृत सक्रंदनः सकलजगज्जय जातदर्प कंदर्प निष्कंदनः शुभोपदेशवचन शैत्यगुणा व गणित