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जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह (द्वितीय प्रशस्ति)
कृतं महावीरचरित्रमेतन्मया पर-स्व-प्रतिबोधनार्थ । सप्ताधिकं त्रिंशभवप्रबंधं पुरूरवाद्यन्तिमवीरनाथ ॥१०३॥ बर्द्धमानचरित्र यः प्रव्याख्याति श्रुणोति च ।
तस्येह परलोकेऽपि सौल्यं संजायते तराम् ॥१०४॥ संवत्सरे दशनवोत्तरवर्षयुक्त(६१०) भावादिकीर्तिमुनिनायकपादमूले । मौद्गल्यपर्वतनिवासव्रतस्थसंपत्सच्छावकाजनिते सति निर्ममत्वे ॥१०॥ विद्या मया प्रपठितेत्यसगाहकेन श्रीनाथराज्यमखिलं-जनतोपकारि । प्रापे च चौडविषये वरलानगयो ग्रन्थाष्टकं च समकारि जिनोपदिष्टं ॥१०६॥
इत्यसगकृते वर्द्धमानचरिते महाकाव्ये महापुराणोपनिषदि भगवन्निर्वाणगमनो नामाष्टादशः सर्गः ॥ नोट-इन दोनो प्रशस्तियोका विशेष ऊहापोह सम्पादक-द्वारा जैनहितैषी
भाग ११ के अन्तर्गत 'पुरानी बातोंकी खोज' शीर्षक लेखमालामें किया गया है ( देखो, उक्तलेखमालाका 'असगकृत वर्द्धमानचरित्रकी दो विभिन्न प्रशस्तियाँ' नामका ६ वॉ लेख, पृ० ३३६ से ३४३)।
और उन्होंने इसे संवत् १६७६ आश्विनमासकी लिखी उस प्रतिपरसे लिया था जो किसी समय मूलसघी हर्षकीर्ति मुनिको थी ( देखो, रायल एशियाटिक सोसाइटी बम्बई बाचके जर्नलका ऐक्स्ट्रा नम्बर, सन् १८६४ )।
* यह प्रशस्ति श्रारा जैनसिद्धान्तभवनकी एक ताडपत्रीय प्रतिपरसे ली गई है, जिसका प्रथम-सर्गात्मक आदिमाग खण्डित है। बम्बई के मन्दिरकी प्रतिमें भी यह प्रशस्ति साधारणसे पाठभेद तथा कुछ अशुद्धियोंके साथ पाई जाती है।