________________
(१३) जो कुन्दकुन्दान्वय सरस्वती गच्छके भ. पचनन्दिके प्रशिष्य तथा भ. देवेन्द्रकीर्तिके शिष्य थे, और सूरतकी गही पर प्रतिष्ठित हुए थे । विद्यानन्दिने 'सुदर्शनचरित' में अपनी गुरुपरम्परा इस प्रकार दी है:-कुन्द कुन्दमन्तानमें विशालकीर्ति हुए, उनके पद पर शुभकीर्ति हुए, शुभकीर्तिक पट्ट पर धर्मचन्द्र, और धर्मचन्द्रकं पट्ट पर रत्नकीर्ति, रस्नकीर्तिके पट्ट पर प्रभाचन्द्र, प्रभाचन्द्र के पट्ट पर पद्मनन्दी, पमनन्दीके पट्ट पर देवेन्द्रकीर्ति,
और देवेन्द्रकीर्तिके पट्ट पर प्रस्तुत विद्यानन्दि हुए। ये विक्रमकी १६वीं शताब्दीके विद्वान थे। ___ भ० विद्यानन्दीकी इस समय दो रचनाओंका पता चला है जिनके नाम हैं सुदर्शनचरित्र और श्रीपालचरित्र । इनमें सुदर्शनचरित्रकी रचना गन्धारपुरीके पार्श्वनाथ चैत्यालयमें हुई है । प्रस्तुत ग्रन्थमें रचनाकाल दिया हुश्रा नहीं है। किन्तु सूरत श्रादिके मुर्तिलेखोंसे प्रकट है कि विद्यानन्दि मूरतकी गहीके पट्टधर हैं। इनके बाद उक्र पट्ट पर भ० मल्लिभूषण
और लक्ष्मीचन्द प्रतिष्ठिन हुए थे। भ० विद्यानन्दिक वि० सं० १४६६ से वि० सं० १५२३ नक के ऐसे मूर्तिलेख पाये जाते हैं जिनकी प्रतिष्ठा भ. विधानन्दिने स्वयं की है अथवा जिनमें भट्टारक विद्यानन्दिके उपदेशसे प्रतिष्टित होनेका उल्लेख पाया जाता है । इससे भ० विद्यानन्दिका समय विक्रमकी १५वीं शताब्दीका उत्तरार्द्ध और सोलहवीं शताब्दीका पूर्वाद्ध जान पड़ता है । इनके प्रधान शिष्य श्रुतसागर थे, जो देशयति या ब्रह्मश्रुत. सागरक नामसं प्रसिद्धिको प्राप्त हैं । उनका परिचय आगे दिया गया है ।
हवीं, ११वी, १२वीं, १०५वीं और १०६ नम्बरकी प्रशस्तियों सुदशनचरित्र, श्रीपालचरित्र धर्मोपदेशपीयूषवर्ष, रात्रिभोजनत्याग कथा और नेमिनाथपुराणकी यथाक्रम संकलित की गई हैं जिनके कर्ता ब्रह्मनेमिदत्त हैं, जो मूलसंघ सरस्वतिगच्छ और बलात्कारगणके विद्वान थे। इनके दीमागुरु भ० विद्यानन्दि थे। और विद्यानन्दिके पट्ट पर प्रति
१ देखो, गुजराती मन्दिर सूरत के मूर्तिलेख, दानवीर माणिकचन्द्र पृष्ठ ५३,५४ ।