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शिष्य भ० विश्वसेनका नामोल्लेख किया है और उन्हें गुणीजनोंमें मुख्य, वीतभय, विख्यातकीर्ति, कामदेवको जीतने वाले, तथा अपने तर्कके द्वारा मायाचार या छल-कपटको विनष्ट करने वाले लिखा है । इनके पट्टधर शिष्य भट्टारक विद्याभूषण थे, जो श्रीभूषणके गुरु थे । भ० श्रीभूषणने अपने उक्त पुराणकी रचना त्रि० स० १६५६ मगसिर शुक्ला त्रयोदशीके दिन समाप्त की है ।
astch बाड़ी मुहल्लेके दि० जैनमन्दिरमें विराजमान भगवान पार्श्वनाथकी मूर्तिको प्रतिष्ठा सं० १६०४ में भट्टारक विद्याभूषणके उपदेशसे हूंबडवंशी अनन्तमतीने कराई थी । इससे स्पष्ट है कि विद्याभूषणके पर गुरु विश्वसेनका समय विक्रमकी १६ वीं शताब्दीका उत्तरार्ध जान पड़ता है ।
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व प्रशस्ति 'वैद्यकशास्त्र' की है जिसके कर्ता वैद्य हरपाल हैं । ग्रन्थ- कर्ताने अपनी गुरुपरम्परा आदिका कोई उल्लेख नहीं किया है; किन्तु ग्रन्थ अन्तमें उसका रचनाकाल विक्रम सं० १३४१ उद्घोषित किया है। जिससे उक्त ग्रन्थ विक्रमकी १४वीं शताब्दीके मध्यकालका बना हुआ है । ग्रन्थकर्ताकी दूसरी कृति 'योगसार' है जिसकी रचना इससे पूर्व हो चुकी थी । यह ग्रन्थ अभी श्रप्राप्त है, प्राप्त होने पर उसका परिचय दिया जायगा ।
१७० वीं प्रशस्ति 'बृहत्मिकपूजा' की है जिसके कर्ता बुध वीरु हैं । जिनका परिचय ९३ नं० की धर्मचक्रपूजा की प्रशस्तिमें दिया गया है ।
१७१ वीं प्रशस्ति यशोधर चरित्र' की है । जिसके कर्ता भट्टारक ज्ञानकीर्ति हैं, जो मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय सरस्वती गच्छ और बलात्कार
* विशालकीर्तिश्च विशालकीर्तिः जम्बू द्रुमांके त्रिमले स देवः । विभाति विद्याव एव नित्यं, वैराग्यपाथोनिधिशुद्धचेताः ॥ श्रीविश्वसेनो यतिवृन्दमुख्यो विराजते वीतभयः सलीलः । स्वतर्कनिर्नाशितसर्वडिम्भः विख्यातकीर्तिर्जितमारमूर्तिः ॥ ५५ ॥