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( १११ ) समन्तभद्राचार्यके उक्र स्तवन पद्यके साथ भक्ति एवं श्रद्धावश 'भागम और प्राप्तवचन जैसे विशेषणोंका प्रयोग करना सम्भव नहीं था।
अब रही 'रचना समयको बात' सो इनका समय विक्रमकी १४ वी शताब्दीका जान पड़ता है। क्योंकि काव्यनुशासनवृत्तिमें इन्होंने महाकवि दण्डी वामन और वाग्भटादिकके द्वारा रचे गये दश काव्य-गुणोंमेंसे सिर्फ माधुर्य ओज और प्रमाद ये तीन गुण ही माने हैं और शेष गुणोंका इन्हीं तीनमें अन्तर्भाव किया है। इनमें वाग्भट्टालङ्कारके कर्ता वाग्भट विक्रमकी १२ वीं शताब्दीके उत्तरार्धके विद्वान हैं। इससे प्रस्तुत वाग्भट वाग्भट्टलंकार के कर्ताले पश्चाहर्ती हैं यह सुनिश्चित है। किन्तु उपर ११ वीं शताब्दीके विद्वान पं० श्राशाधरजीके 'राजीमती विप्रलम्भ या परित्याग' नामके ग्रन्थ का उल्लेख किया गया है और जिसके देखनेकी प्रेरणा की गई है। इस ग्रन्थोल्लेखसे इनका समय तेरहवीं शताब्दीके बादका सम्भवतः विक्रमकी १४ वीं शताब्दीका जान पडता है।।
१८वीं प्रशस्ति 'षण्णवतिक्षेत्रपालपूजा' की है जिसके कर्ता मुनि विश्वसेन हैं, जो काष्ठासंघके नन्दीतट नामक गच्छके रामसेनके वंशमें हुये थे। ग्रन्थकर्ताने प्रशस्तिमें उसका रचनाकाल नहीं दिया है जिसस साधन-सामग्रीके अभावमें यह बतलाना कठिन है कि मुनिविश्वसेनने इस ग्रन्थको रचना कब की है। फिर भी दूसरे प्राधारले उनके समय सम्बन्धमें विचार किया जाता है:
भट्टारक श्रीभूषणने अपने शान्तिनाथ पुराणमें अपनी गुरु-परम्पराका उल्लेख करते हुए जो गुरु परम्परा दी है उसमें काष्ठासंघके नन्दीतट गच्छ और विद्यागणके भट्टारकोंकी नामावली देते हुए भट्टारक विशालकीर्तिके
8 इति दण्डिवामनवाग्भटादिप्रणीता दशकाव्यगुणाः । वयं तु माधुर्योजप्रसादलक्षणास्त्रीनेव गणा मन्यामहे, शेषास्तेष्वेवान्तर्भवन्ति । तद्यथामाधुर्ये कान्तिः सौकुमार्य च, प्रोजसि श्लेषः समाधिरुदारता च । प्रसादेऽर्थव्यक्निः समता चान्तर्भवति ।
काम्यानुशासन २, ३,