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अनेक पत्र उद्धृत किये गये हैं जिनमें कितने ही पद्य ग्रन्थकर्ताके स्वनिर्मित भी होंगे, परन्तु यह बतला सकना कठिन है कि वे पथ इनके किस ग्रन्थके हैं। समुद्धृत पद्योंमें कितने ही पद्य बड़े सुन्दर और सरस मालूम होते हैं। पाठकों की जानकारीके लिये उनमेंसे दो तीन पद्य नीचे दिये जाते हैं। :कोऽयं नाथ जिनो भवेत्तव वशी हुं हुं प्रतापी प्रिये हुं हुं तर्हि विमुञ्च कातरमते शौर्यावलेपक्रियां. मोहोऽनेन विनिर्जितः प्रभुरसौ तत्किङ्कराः के वयं
इत्येवं रतिकाम जल्पविषयः सोऽयं जिनः पातु व. ॥ एक समय कामदेव और रति जङ्गलमे विहार कर रहे थे कि अचानक उनकी दृष्टि ध्यानस्थ जिनेन्द्रपर पड़ी, उनके रूपवान प्रशान्त शरीरको देखकर कामदेव और रनका जो मनोरंजक संवाद हुआ है उसीका चित्रण इस पद्यमे किया गया है । जिनेन्द्रको मेरुवत् निश्चल ध्यानस्थ देखकर रति कामदेव पूछती है कि हे नाथ ! यह कौन है ? तब कामदेव उत्तर देता है कि यह जिन हैं, --राग-द्वेषादि कमशत्रुत्रों को जीतने वाले है- - पुनः रति पूछती है कि यह तुम्हारे वशमें हुए ? तब कामदेव उत्तर देता है कि हे प्रिये ! यह मेरे वश में नहीं हुए क्योंकि यह प्रतापी है । तब फिर रति पूछती है यदि यह तुम्हारे वशमें नहीं हुए तो तुम्हें 'त्रिलोकविजयी' की शूरवीरताका अभिमान छोड़ देना चाहिए । तब कामदेव रनिले पुनः कहता है कि इन्होंने मोह राजाको जीत लिया है जो हमारा प्रभु है, हम उसके किङ्कर हैं । इस तरह रति और कामदेव संवादविषयभूत यह जिन तुम्हारा संरक्षण करें ।
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शठकमठ विमुक्ताग्राव संघात घात-व्यथितमपि मनो न ध्यानतो यस्य नेतुः । अचलदचलतुल्यं विश्वविश्वैकधीरः, स दिशतुशुभमीशः पार्श्वनाथोजिनोवः
इस पद्यमें बतलाया है कि दुष्ट कमठके द्वारा मुक्त मेघसमूहसे पीड़ित होते हुए जिनका मन ध्यानले जरा भी विचलित नहीं हुआ वे मेरुके समान अचल और विश्व अद्वितीय धीर, ईश पार्श्वनाथ जिन तुम्हें कल्याण प्रदान करें ।