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विभुं नाभेयमानम्य छन्दसामनुशासनम् । श्रीमन्नेमि कुमारस्यात्मजोऽहं वक्रिम वाग्भटः
यह मंगल पद्य कुछ परिवर्तनक साथ काव्यानुशासनको स्वोपज्ञवृत्ति में भी पाया जाता है, उसमें 'छन्दसामनुशासनं' के स्थान पर 'काव्यानुशासनम' दिया हुआ है।
यह छन्दग्रन्थ पाँच अध्यायोंमें विभक्त है, संज्ञाध्याय १, समवृत्ताख्य २, अर्धसमवृत्ताख्य ३, मात्रासमक ४, और मात्रा छन्दक ५ । ग्रन्थ सामने न होनेसे इन छन्दोंके लक्षणादिका कोई परिचय नहीं दिया जा सकता और न यह ही बतलाया जा सकता है कि ग्रन्थकारने अपनी दूसरी किन-किन रचनाओं का उल्लेख किया है।
काव्यानुशासनकी तरह इस ग्रन्थमें भी राहड और नेमकुमारकी कीर्तिका खुला गान किया गया है और राहडको पुरुषोत्तम तथा उनकी विस्तृत चैत्यपद्धतिको प्रमुदित करने वाली प्रकट किया है। यथा-
पुरुषोत्तम राहुडप्रभो कस्य न हि प्रमदं ददाति सद्यः वितना तव चैत्यपद्धतिर्वात चलध्वजमालभारिणी ।
अपने पिता नेमकुमारकी प्रशंसा करते हुए लिखा है कि 'घूमने वाले भ्रमर से कम्पित कमलके मकरन्द ( पराग समूहसे पूरित, भडोच अथवा भृगुक्रच्छनगरमें नेमिकुमारकी अगाध बावड़ी शोभित होती हैं। यथा-
परिभमिर भमर कंपिरसर रूहमयरंदपु जपंजरिया | वाची सहइ अगाहा रोमिकुमारस्स भरुअच्छे ||
इस तरह यह छन्दग्रन्थ बडा ही महत्वपूर्ण जान पडता है और प्रकाशित करने के योग्य है ।
काव्यानुशासन नामका प्रस्तुत ग्रन्थ मुद्रित हो चुका है। इसमें काव्यसम्बन्धी विषयों का रस, अलङ्कार छन्द और गुण, दोष आदिका कथन किया गया है। इसकी स्वोपज्ञवृत्ति में उदाहरण स्वरूप विभिन्न प्रन्थोंके
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