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गया है । जिससे यह सम्भव है कि इन्होंने किसी स्तुति ग्रन्थकी भी रचना की हो; क्योंकि रसोंमें रति ( श्रृंगार ) का वर्णन करते हुए देव विषयक रतिके उदाहरणमें निम्न पद्य दिया है
नो मुक्त्यै स्पृहयामि विभवैः कार्य न सांसारिकैः, किंत्वायोज्य करौ पुनरिदं त्वामीशमभ्यर्चये । स्वप्ने जागरणे स्थितौ विचलने दुःखे सुखे मन्दिरे, कान्तारे निशिवासरे च सततं भक्तिर्ममास्तु त्वयि ।
इस पद्यमें बतलाया है - 'कि हे नाथ ! मैं मुक्किपुरी की कामना नहीं करता और न मांसारिक कार्योंके लिये विभव धनादि सम्पत्ति ) की ही कांता करता हूँ; किन्तु हे स्वामिन् हाथ जोडकर मेरी यह प्रार्थना है कि स्वप्नमें, जागरणमें, स्थितिमें, चलने में दुःख-सुखमें, मन्दिरमें, बनमें, रात्रि और दिनमें निरन्तर आपकी ही भक्ति हो ।'
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इसी तरह कृष्ण नील वर्णोंका वर्णन करते हुए राहडके नगर और वहां प्रतिष्ठित नेमिजिनका स्तवन-सूचक निम्न पद्य दिया हैसजलजलदनीला भातियस्मिन्वनाली मरकतमणिकृष्णो यत्र नेमिजिनेंद्रः । विकच कुवलयालि श्यामलं यत्सरोम्भ प्रमुदयति न कांस्कांस्तत्पुरं राहडस्य ||
इस पद्य में बतलाया है- 'कि जिसमें वन-पंक्तियां सजल मेघ के समान free मालूम होती हैं और जिस नगरमें नीलमणि सदृश कृष्णवर्ण श्री मिजिनेन्द्र प्रतिष्ठित हैं तथा जिसमें तालाब विकसित कमलममूहसे पूरित हैं वह हडका नगर किन- किनको प्रमुदित नहीं करता ।
महाकवि वाग्भट्टकी इस समय दो कृतियां उपलब्ध हैं छन्दोऽनुशासन और काव्यानुशासन । उनमें छन्दोऽनुशासन काव्यानुशासन से पूर्व रचा गया है; क्योंकि काव्यानुशासनकी स्वोपज्ञवृत्ति में स्वोपशछन्दोऽनुशासनका उल्लेख करते हुए लिखा है कि उसमें छन्दोंका कथन विस्तारसे किया गया | श्रतएव यहांपर नहीं कहा जाता छ ।
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* 'श्रयं च सर्वप्रपंच: श्रीवाग्भट्टाभिधस्वोपज्ञछन्दोऽनुशासने प्रपंचित इति नानोच्यते ।"