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( १०२ ) उन्होंने इस प्रकरणमें जो भही भूलें की हैं उन्हें यहां दिखलानेका अवसर नहीं है। वस्तुत: वामदेवका समय १६ वीं शताब्दी नहीं है बल्कि विक्रमकी १५ वीं शताब्दीका पूर्वार्ध है । इसी तरह भद्रबाहु चरित्रके कर्ता रत्ननंदीका समय १६ वीं शताब्दीका द्वितीय तृतीय चरण है, १७ वीं शताब्दी नहीं है।
१४० वीं प्रशस्ति 'आदिपुराणटीका के ४३ से ४७ पर्षों तक की टीका की है, जिसके कर्ता भट्टारक ललितकीर्ति हैं जिनका परिचय १५ वीं प्रशस्तिमें दिया जा चुका है।
१४१वीं प्रशस्ति 'वाग्भट्टालकारावचूरि-कविचन्द्रिका' की है जिसके कर्ता कवि वादिराज हैं । जो तक्षकपुर ( वर्तमान टोडानगर ) के निवासी थे और वहांके राजा राजसिह के मन्त्री थे, जो भीमसिहके पुत्र थे। इनके पिताका नाम पोमराजश्रेष्ठी था और ज्येष्ठ भ्राताका नाम पं० जगन्नाथ था, जो संस्कृत भाषाके विशिष्ट विद्वान और अनेक ग्रन्थोंके रचयिता थे । इनकी जाति खण्डेलवाल और गोत्र सोगानी था। इनके चार पुत्र थे, रामचन्द्र, लालजी, नेमिदास और विमलदास । विमलदासक समय टोडामें उपद्रव हुश्रा था और उसमें एक गुटका लुट गया और फट गया था, बादमें उस छुड़ाकर, सुधार तथा मरम्मत कराकर अच्छा किया गया था । कविने राज्यकार्य कितने समय किया, यह कुछ ज्ञात नहीं होता। __ कविको इस समय दो रचनाएँ उपलब्ध हैं वाग्भट्टालंकारकी उक्त टीका और ज्ञानलोचन स्तोत्र नामका एक स्तोत्र ग्रन्थ । दूसरा अन्य माणिक चन्द्र दिगम्बरजैन ग्रन्थमालासे प्रकाशित मिन्द्वान्तसारादि संग्रहमें मुद्रित हो चुका है और पहला ग्रन्य अभीतक अप्रकाशित है। कविने उस सम्बत् १७२६ को दीपमालिकाके दिन गुरुवारको चित्रा नक्षत्र और वृश्चिक लग्नमें बनाकर समाप्त किया है । कविवर वादिराजने अन्य किन-किन ग्रन्थोंकी रचना की, यह अभी कुछ ज्ञात नहीं है । यह अपने समयकं सुयोग्य विद्वान और राजनीतिमें दक्ष सुयोग्य मन्त्री थे।