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________________ [२९९ परिषह-विजय] मलना पड़ता है, कभी मल-मूत्र भी साफ करना पड़ता है तो उसे इन कामों में टना आती है। परन्तु ऐसी लजा न आना चाहिये - इसे स्वावलम्बन, सेना और अहिंसा का कार्य सम्झकर प्रसनता से करना चाहिये । यह लजा-परिषह का विजय है । इस प्रकार और भी परिषहें दूंही जा सकती हैं। धर्म चारित्रमय है । इसलिये उसका जितने द्वारों से विवेचन किया जाए उतना ही थोड़ा है । दुःख को दूर करने तथा भविष्य के लिये न आने देने के लिये अनेक उपायों का वर्णन जैन शास्त्रों में किया गया है, उनमें अधिकांश की विवेचना यहाँ कर दी गई है। कुछ उपाय जान बूझकर छोड़ दिये जाते हैं। जैसे चारित्र के गच भेद है सामायिक छदोपस्थापना आदि । अभेद रूप में व्रत लेना सामायिक, भद रूप में व्रत लेना छेदोपस्थापना । आजकल उन भेदों की कई विशेष उपयोगिता नहीं है, इसलिये उन पर उपेक्षा की जाती है । गृहस्थ-धर्म जैन शाखों में अहिंसा अणुव्रत आदि १६ व्रतों के नाम से गृहस्थ-धर्म का जुदा विवेचन किया गया है साधारण शब्दों में गृहस्थों का धर्म अणुव्रत कहा जाता है । परन्तु अणुव्रत और महाबत की सीमा का वर्णन में 'पूर्ण और अपूर्ण चारित्र' शीर्षक के नीचे कर आया हूँ । साधारणत: श्रावक का अणुव्रत के साथ और मुनि का महावत के साथ सम्बन्ध न जोड़कर स्वतंत्र रूप में ही इनकी व्याख्या करना चाहिये, जैसी कि पहिले मैंने की है। इसलिये जैन शास्त्रों में जो अणुव्रत या देशव्रत के नाम से कहे जाते हैं,
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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