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________________ ३०८ ] पाँचवाँ अध्याय - से उनकी सब बातों को मिथ्या क्यों न समझा जाय ? उदाहरणार्थ अगर जैन शास्त्र का भूगोल वर्णन वर्तमान भूगोल से खंडित हो जाता है तो इस से जनशास्त्र और इसी प्रकार मिथ्या भूगोल मानने वाले अन्य शास्त्र मिथ्या क्यों न माने जाय । प्रश्न-भूगोल आदि विषय प्रक्षिप्त मानले तो? उत्तर-तो कौनसा भाग प्रक्षिप्त है और कौनसा भाग प्रक्षिप्त नहीं है, इस का निर्णय कौन करेगा ? प्रश्न--जो भाग प्रमाण-विरुद्ध है, वह प्रक्षिप्त है । उत्तर-जब प्रमाणों के आधार पर ही प्रक्षिप्त अक्षिप्त का निर्णय करना है, तब श्रद्धाको स्थान कहाँ रहा ? निर्णय तो तर्क के ही हाथ में पहुंचा। प्रश्न-इस प्रकार कोरे तर्ववाद के प्रबल तूफानों से तो आप शास्त्रों को बर्बाद ही कर देंगे, प्राचीन आचार्यों के प्रयत्नों पर पानी फेर दगे । फिर शास्त्र की आवश्यकता ही क्या रहेगी ? और रुतज्ञानके लिये स्थान ही क्या रहेगा ! उत्तर -यदि परीक्षा करना कोरा तर्कवाद है तब तो संसार में अधश्रद्धालुओं का ही राज्य होना चाहिये । जैनाचार्यों ने जब ईश्वर सखि विश्वविख्यात और बहुजनसम्मत जगत्कर्ता आत्मा के अस्तित्व से इनकार किया उस समय उनने कोरे तर्ववाद के प्रबल तूफान ही तो चलाये हैं । कमजोर मनुष्यों की यह आदत होती है कि जब तक वे अपने पक्षको तर्कसिद्ध समझते हैं तबतक वे तर्क के गीत गाते हैं किन्तु जब वे अपने पक्षको तर्क के सामने टिकता
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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