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श्रुतमान के भेद [३०९ हुआ नहीं पाते तब श्रद्वा के गीत गात हैं और परीक्षकों को कोरा तर्कवादी कह कर नाक मुँह सिकोड़ते हैं। ये लोग सत्यके भक्त नहीं, अन्धश्रद्रा के भक्त हैं । ये लोग सच्च जैन नहीं कहला सकदे ।
परीक्षा करने से शास्त्र की आवश्यकता न रहेगी यह समझना भूल है । किसी नयी बात की खोज करने की अपेक्षा उस की परीक्षा अत्यन्त सरल है । घड़ी बनाना कठिन है, किन्तु उस की जाँच करना, यह ठीक चलती है या नहीं आदि, इतना कठिन नहीं है । शास्त्रों से हमें यह महान लाभ है कि हमें सैकड़ों नयी बातें मिलती हैं, उनकी परीक्षा करके हम उनमें से सत्य और वल्याणकारी बातों को अपना सकते हैं। अगर शास्त्र न हो तो हम किस की परीक्षा करें और नयी नयी बातों की कहाँ तक कल्पना करें ? साक्षी की बात प्रमाण नहीं मानली जाती परन्तु वह निरुपयोगी नहीं है । इसी प्रकार शास्त्र की बात भी प्रमाण नहीं मानी जा सकती परन्तु वह निरुपयोगी नहीं है।
प्रश्न- शास्त्रों की परीक्षा तो हम तब करें जब हम शास्त्रकारोंसे अधिक बुद्धिमान हों।
उत्तर-यदि ऐसा विचार किया जायगा तब तो हमें किसी भी धर्म को अपनाने का उचित अधिकार न मिल सकेगा। जो जो मनुष्य अपने को जन कहते हैं और जैनधर्म को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं क्या वे अ य धोके प्रवर्तकों और आचार्योसे अवश्य अधिक बुद्धिवाले हैं ? इसी प्रकार के प्रश्न अन्य धर्मावलम्बियोंसे भी किये जा सकते हैं ? ऐसी हालत में प्रायः कोई मनुष्य परीक्षक बनकर