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________________ २४८ ] पाँचवाँ अध्याय प्रबल कारण है । एकेन्द्रिय जीवों के, जैनसाहित्य के प्राचीनसे प्राचीनकाल में मति और इरुत दो ज्ञान मिलते हैं। जब कि रुतज्ञान मनसे ही माना गया है तब यह निश्चित है कि उनमें मन भी माना जाता होगा। अन्यथा उनके इरुतज्ञान मानने की कोई जरूरत नहीं थी। खैर, इस विवेचन से इतना तो सिद्ध है कि एकेन्द्रिय आदि सभी जीवों के मन होता है इसलिये वे थोड़ा बहुत विचार कर सकते हैं, एक दूसरे के भावों को भी किसी न किसी रूप में समझ सकते हैं । भावों को व्यक्त करने का या समझने का जो माध्यम है वही भाषा है, और उससे पैदा होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान है । इस प्रकार श्रुतज्ञान सभी संसारी जीवों के सिद्ध होने में कोई बाधा नहीं है। प्रश्न-इरुतज्ञान की जो परिभाषा आपने की है वह ठीक है, परन्तु इससे इरुतज्ञान का विषय मतिज्ञान से कम हो जायगा और रुतज्ञान की विशेषता न रहेगी। श्रुतज्ञान का अलग स्थान मानने की जरूरत भी क्या रहेगी ? उत्तर-मतिज्ञान का विषय अगर श्रुतज्ञान से अधिक सिद्ध हो जाय तो इसमें कोई आपत्ति नहीं है। वास्तव में मतिज्ञान का विषय सब से अधिक ही है । और किसी अपेक्षा से श्रुत्तज्ञान मतिज्ञान का भेद ही है, यह बात पहिले कही जा चुकी है। श्रुतज्ञान का जो अलग स्थान रक्खा गया है उसका कारण यह है कि मनुष्य जाति का सारा विकास इसके ऊपर अवलम्बित है। यदि पूर्वजों
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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