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________________ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान [ २४९ से आये हुए ज्ञान का लाभ हमें समाज के द्वारा न मिला होता तो हम सबसे अधिक बुद्धिमान होने पर भी मूर्ख से मूर्ख से भी पीछे रहे होते। किसी भी दिशा में जाओ उस दिशा में हमें इसके उदाहरण मिलेंगे | आज हम जिस सुन्दर रेलगाड़ी में यात्रा करते हैं, उसको बनानेवाला ऐसी गाड़ी कभी न बना सकता, यदि उसे इससे पहिले की साधारण रेलगाड़ी का ज्ञान अपने पूर्वजों से न मिला होता । मतलब यह है कि अगर हम श्रुतज्ञात को अपने जीवन में से निकाल दें तो हममें से प्रत्येक को अपनी उन्नति का प्रारम्भ बिलकुल पशुजीवन से शुरू करना पड़े, हमारे ज्ञान का लाभ आगे की पीढ़ी न उठा सके, इसलिये उसे भी वहीं से उन्नति का प्रारम्भ करना पड़े जहां से हमने किया है । इस प्रकार प्राणीसमाज किसी भी तरह की उन्नति कभी न कर सके । इरुतज्ञान ने ही हमारे जीवन को इतना उन्नत बनाया है । पूर्वजों का और अपने साथियों के अनुभवों का लाभ अगर हमें न मिले तो हमारी अवस्था पशुओं से भी निम्नश्रेणी की हो जाय । इसीलिये श्रुतज्ञान का क्षेत्र भी विशाल है, उसका स्थान भी उच्च और स्वतन्त्र है 1 यद्यपि श्रुतज्ञान, मतिज्ञान बिना खड़ा नहीं हो सकता किन्तु श्रुतज्ञान के बिना मतिज्ञान, पशु से अधिक उच्च नहीं बना सकता । इस प्रकार मतिश्रुत एक दूसरे में ओतप्रोत होने पर भी स्वार्थ और परार्थ की दृष्टि से दोनों में भेद है मतिज्ञान के भेद मतिज्ञानके भेद जो वर्तमान में प्रचलित हैं उनका विकास कब कैसे हुआ इसका पता लगाना यद्यपि कठिन है, तो भी इतना अवश्य
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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