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________________ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान [ २४७ कहलाता उसी प्रकार साधारण संज्ञासे कोई संज्ञीं नहीं कहलाता किन्तु उसके लिये विशेष संज्ञा होना चाहिये ( १ ) ।" इन उद्धरणों से इतना तो सिद्ध होता है कि आज से करीब डेढ़ हजार वर्ष पहिले वृक्षादिकों के पाँचों इन्द्रियाँ और मन. माना जाने लगा था । किन्तु जीवों के एकेन्द्रिय आदि भेद उससे भी पुराने हैं । उस पुरानी परम्परा का समन्वय करने के लिये यह मध्यम मार्ग निकाला गया कि एकेन्द्रियादि भेद द्रव्येन्द्रिय की अपेक्षा मानना चाहिये, भावेन्द्रियाँ तो सभी के सब होती हैं । मेरे खयाल से इसकी अपेक्षा यह समन्वय कहीं अच्छा है कि सभी जीवोंके सभी द्रव्येन्द्रियाँ और द्रव्यमन माना जाय और विशेषावश्यक के शब्दों में उन्हें इसलिये एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय आदि ठहराया जाय कि उनके शेष इन्द्रियाँ बहुत अल्प परिणाम में हैं । द्रव्येन्द्रिय का बिलकुल अभाव मानने से भावेन्द्रिय भी काम न कर सकेगी । 1 जो लोग समन्वय न करना चाहते हों, उन्हें यह समझना चाहिये कि प्राचीन समय में जितने साधन थे उसके अनुसार खोज करके जीवों के एकेन्द्रियादि भेद निश्चित किये गये, पछेि नये नये अनुभव होने से उन सबको पंचेन्द्रिय माना जाने लगा । इस प्रकार एक दिशासे जैन वाङ्मय में धीरे धीरे विकास भी होता रहा । परन्तु इस विचारधारा की अपेक्षा समन्वय की तरफ झुकने का एक (१) थोवा न सोहणा विय जं सा तो नाहिकीरए इहवं । करिसावणेण धणवं ण रुववं मुत्तिमतेण । ५०६ । जह बहुदव्वो धणवं पत्थरूवा अ रूववं होइ । महईइ सोहणाए य तह सण्णी नाणसण्णाए । ५०७ ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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