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________________ २२८ ] पाँचवाँ अध्याय म. महावीर के समय में ज्ञानों पर इस दृष्टि से विचार ही नहीं किया गया था । जिस समय जैनियों को दूसरे दर्शनों का सामना करना पड़ा उस समय उन्हें नये सिरे से प्रमाण व्यवस्था माननी पड़ी! मत्यादि पाँच भेद तार्किक चर्चा के लिये उपयोगी नहीं थे इसलिये जैनियोंने अपनी प्रमाणव्यवस्था दो भागों में विभक्त की । एक धर्मशास्त्रोपयोगी पाँच ज्ञान रूप, दूसरी तार्किक क्षेत्रोपयोगी द्विविध या चतुर्विध । तार्किक दृष्टि से भी प्रमाणके भेद दो तरह से किये गये हैं । एक तो प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम इस प्रकार चार भेद दूसरे प्रत्यक्ष और परोक्ष इस प्रकार दो भेद । तार्किक पद्धति के ये दोनों प्रकार के भेद म. महावीर के बहुत पीछे के हैं । उमास्वाति ने तार्किक पद्धति के इन दोनों प्रकार के भेदों का उल्लेख किया है । वे कहते हैं - " प्रमाण के दो भेद हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । कोई कोई अपेक्षाभेद से चार प्रमाण मानते हैं" 1 "ये चार भेद भी प्रमाण हैं (१) । " उस समय प्रमाणके और भी बहुत से भेद प्रचलित थे । कोई पाँच छः सात आदि भेद मानते थे जिसमें अर्थापत्ति संभव अभाव का समावेश होता था । उमास्वाति इन भेदों को अपने 1 (१) तत्र प्रमाणं द्विविधं प्रत्यक्षं च परोक्षं च वक्ष्यते । चतुर्विधमित्येके नयवादान्तरेण । त० भा० १-६ । यथा वा प्रत्यक्षानुमानोपमानप्रवचनैरेकोऽर्थः प्रमीयते । त० भा० १-३५ । अतश्र प्रत्यक्षानुमानोपमानप्रवचनानामपि प्रामाण्यमभ्यनुज्ञायते | १·३५ |
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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