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________________ ज्ञान के भेद [ २२९ 1 भेदों में शामिल करके भी इनका विरोध (१) करते हैं । इससे मालूम होता है कि उमास्त्राति जिस प्रकार चार भेदों के समर्थक थे, उस प्रकार पाँच, छः, सात आदि के नहीं । फिर भी मालूम होता है कि उनने चार भेदों का समर्थन सिर्फ इसलिये किया था कि उनसे पहिले के जैनाचार्यों ने उन्हें स्वीकार किया था । वास्तव में प्रमाण के चार भेद उन्हें पसन्द नहीं थे । अगर उन्हें ये भेद पसन्द होते तो जिस प्रकार उनने प्रत्यक्ष परोक्ष भेदों में पाँच ज्ञानों का अन्तर्भाव किया है उसी प्रकार प्रत्यक्ष अनुमान आदि चार भेदों में भी पाँच ज्ञानों का अन्तर्भाव करते । चार भेदोंवाली मान्यता में पाँच ज्ञानों का अन्तर्भाव ठीक ठीक न हो सकने के कारण ही उमास्वातिने इस पर एक प्रकारसे उपेक्षा की है । सूत्रमें प्रत्यक्ष परोक्ष का ही उल्लेख किया है और उसीमें पाँच ज्ञानों का अन्तर्भाव किया है। 1 चार भेदवाली मान्यता अवश्य ही उमास्वाति के पहिले की थी, परन्तु दोमेदवाली मान्यता पहिले की थी या नहीं, यह कहना ज़रा कठिन है । फिर भी इतना तो कहा जा सकता है कि जैन साहित्य में चार भेदवाली मान्यता से दो भेदवाली मान्यता पीछे की है । प्रमाण के दो भेदवाली मान्यता चार भेदवाली मान्यता से अधिक पूर्ण है । इसलिये अगर प्रत्यक्ष परोक्षवाली मान्यता पहिले आगई. होती तो चार भेदवाली मान्यता को ग्रहण करने की . आवश्यकता ही न होती । इसलिये प्रारम्भमें काम चलाने के लिये नैयायिकों की I (१) अनुमानापमानागमार्थापत्तिसम्भवाभावानपि च प्रमाणानीति केचिन्मन्यन्यन्ते तत्कथमेतदित्यत्रोच्यते - सर्वाण्येतानि मतिश्रुतयोरन्तर्भूतानि इन्द्रियार्थसन्नि कर्षनिमित्तत्वात् । किञ्चान्यत् अप्रमाणान्येव वा कुतः मिथ्यादर्शनपरिमहाद्विपरीतोपदेशाच । त० भा० १-१२ ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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