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________________ ज्ञान के भेद [ २२७ तक चली आ रही है, परन्तु इनके लक्षणों में बहुत अन्तर हो गया हैं तथा अनेक नयी समस्याएँ भी इनके भीतर पैदा हुई हैं, जिनके समाधान के प्रयत्न ने भी इनके स्वरूप को विकृत करने में सहायता पहुँचाई है । म. महावीर ने ज्ञानके पाँच भेद ही बताये थे । इसीलिये ज्ञानावरण कर्म के भी पाँच भेद माने गये हैं । प्रत्यक्षावरण, परोआवरण आदि भेदों का शास्त्रों में उल्लेख नहीं है । ज्ञानके प्रत्यक्ष, परोक्ष भेद कुछ पीछे शामिल हुए हैं । यह दूसरे दर्शनों की विचारधारा का प्रभाव है । P इसलिये जैनाज्ञान को विभक्त भेदों की परम्परा दूसरे दर्शनों में ज्ञानों को प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम आदि भेदों में बाँटा गया है। ये भद अनुभवगम्य और तर्कसिद्ध हैं । आगमके मति आदि भेद इस प्रकार तर्कपूर्ण नहीं हैं चार्येने प्रत्यक्ष और परोक्ष इस प्रकार दो भागों में किया | इस प्रकार जैनशास्त्रों में दोनों तरह के चली । नन्दीसूत्र के टीकाकार मलयगिरि इस बात में कहते हैं कि तीर्थंकरोंने और गणधरोंने अपनी पाँच भेद प्राप्त किये थे, न कि सिर्फ दो जैसे कि आगे [१] कहे जायंगे' । इससे साफ मालूम होता है कि ज्ञानों के प्रत्यक्ष परोक्ष की कल्पना म. महावीर और गणधरों के पीछे की है । वास्तव को स्पष्ट शब्दों प्रज्ञा से ज्ञान के (१) ज्ञानं तीर्थकररपि सकलकालावलम्बिसमस्तवस्तुस्तोमसाक्षात्का रिकेवलप्रझया पञ्चविधमेव प्राप्तं गणधरैरपि तीर्थक्रुद्भिरुपदिश्यमानं निजप्रज्ञया पश्चविधमंव नतु वक्ष्यमाणत्या द्विभेदमेव । नन्दीका ज्ञानपञ्चकोद्देश सूत्र १
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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