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________________ " सर्वज्ञत्व और जैनशाख [ ८७. दर्शन का उपयोग सदा नहीं होता । इस प्रकार जैनधर्म में भी युञ्जान योगियों (केवलियों ) की मान्यता सिद्ध हुई । यद्यपि ये तीनों मत विचारणीय या सदोष हैं परन्तु मौलिकताकी दृष्टि से इन तीनों में से अगर एक का चुनाव करना हो तो इन में से पहिला क्रमोपयोगवाद ही मानना पड़ेगा । क्रमोपयोगवाद तीनों वादों में श्रेष्ठ होने पर भी उसके प्रचलित अर्थ में कुछ लोगों का [ जिन में प्राचीनकाल के लेखक भी शामिल हैं | ऐसा विचार है कि केवलदर्शन और केवलज्ञान का जो क्रम से उपयोग बतलाया है उसका अर्थ यह है कि एक समय में केवलदर्शन होता है, दूसरे समय में केवलज्ञान, तीसरे समय में फिर केवलदर्शन और चौथे समय में फिर केवलज्ञान, इस प्रकार प्रत्येक समय में ये दोनों उपयोग बदलते रहते हैं । विशेषाश्यक भाष्य में शंकाकार की तरफ से इसी प्रकार का क्रमोपयोग कहलाया (१) गया है परन्तु प्रतिसमय उपयोग बदलने की बात ठीक नहीं मालूम होती । एकान्तर उपयोग का यह अर्थ नहीं है कि उपयोग प्रति समय बदले । उपयोग बदलते जरूर हैं - परन्तु वे प्रत्येक समय में नहीं किन्तु अन्तर्मुहूर्त में बदलते हैं । यदि एकान्तर शब्द का ऐसा अर्थ न किया जायगा तो अल्पज्ञानी का भी उपयोग प्रति समय बदलनेवाला मानना पड़ेगा । क्योंकि क्रमवाद के समर्थन में यह कहा गया है कि "यदि केवल (१) क्रमोपयोगत्वे केवलज्ञानदर्शनयोः प्रतिसमयं सान्तत्वं प्राप्नोति ) समयात्समयादूर्ध्वं केवलज्ञानदर्शननोपयोगयोः पुनरप्यभावत् । विशेष० वृत्ति ) 'एकस्मिन् समये जानाति एकस्मिन् समये पश्यतीति' नन्दवृत्ति | "
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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