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________________ ८६ ] चौथा अध्याय इतने समय तक उसका उपयोग नहीं होता है, उसी प्रकार ये उपयोग भी सादि अनन्त हैं। [ग] आक्षेप "ख" में जो समाधान है उसीसे 'ग' का भी हो जाता है। [५] जिस प्रकार मत्यादि चार ज्ञानों के उपयोग एक साथ न होने से वे एक दूसरे के आवरण करनेवाले नहीं हो सकते उसी प्रकार केवलज्ञान और केवलदर्शन भी एक दूसरे के आवरक न होंगे। [] जब हम मतिज्ञान से कोई वस्तु देखकर श्रुतज्ञान से विचार करके कहते हैं तब श्रुतज्ञान के समय मतिज्ञान का उपयोग न होने पर भी यह नहीं कहा जाता कि हम बिनादेखी वस्तु का उपयोग करते हैं। [च] यदि छनस्थों में ज्ञानदर्शन भिन्नसमयवर्ती होनेपर भी सच्चा ज्ञान होता है तो केवली के होने में क्या बाधा है। इस प्रकार क्रमवाद के विरोध में जो आशंकायें की गई हैं उन का उत्तर दिया गया है । अभेदबाद तो जैनागम के स्पष्ट ही प्रतिकूल है। यदि केवलदर्शन और ज्ञान एक ही हैं तो उसको भिन्नरूप में कहने की आवश्यकता ही क्या है ? इतना ही नहीं किन्तु इसके घातक दो जुदे जुदे कर्म बनाने की भी क्या आवश्यकता है? यह चर्चा बहुत लम्बी है । यहाँ इसका सार दिया गया है। इससे यह बात साफ मालूम होती है कि जैनशास्त्रों की प्राचीन परम्परा के अनुसार केवली के भी केवलज्ञान और केवल.
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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