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________________ ८८] चौथा अध्याय ज्ञान के समय सर्वदर्शित्वका अभाव माना जायगा और केवलदर्शन के समय सर्वज्ञत्वका अभाव माना जायगा तो यह दोष छद्मस्थ के भी उपस्थित होगा (१) । क्योंकि उसके भी दर्शन ज्ञान का उपयोग एकान्तर होता है । जब उसके ज्ञानोपयोग होगा तब चक्षुदर्शन आदि का अभाव मानना पड़ेगा और चक्षुदर्शन आदि के उपयोग में मतिज्ञान आदि का अभाव मानना पड़ेगा । तब इनकी ६६ सागर आदि स्थिति कैसे होगी ? इनका उपयोग तो अन्तर्मुहूर्त ही होता है (२)" यदि मति आदि ज्ञानों का और चक्षु आदि दर्शनों का उपयोग अन्तर्मुहूर्त तक ठहर सकता है तो केवलज्ञान का उपयोग अन्तर्मुहूर्त तक क्यों न ठहरे ? वह एक समय में ही नष्ट होनेवाला क्यों माना जाय ? जिन कारणों से मतिज्ञान अन्तर्मुहूर्त तक ठहर सकता है वे कारण केवलज्ञानी के पास अधिक हैं। इसलिये केवलज्ञानोपयोग भी एकसमयवर्ती नहीं किन्तु अन्तर्मुहूर्त का मानना चाहिये। इसके अतिरिक्त एक बात और भी यहाँ विचारणीय है। जो लब्धि हमें प्राप्त होती है वह उपयोगात्मक होना ही चाहिये, यह कोई नियम नहीं है। अवधिज्ञानी वर्षों तक अवधिज्ञान का उपयोग न करे तो भी चल सकता है, तथा वह अवधिज्ञानी कहलाता रहता है। इसी तरह केवलज्ञान भी एक लब्धि है [ नव क्षायिक लब्धियों में इसकी भी गिनती है. इसलिये (१)छद्रस्थस्यापि दर्शनशानयोः एकान्तर उपयोगे सर्वमिदं दोषजालं समानं विशेषाः वृत्ति ३१०३ (२)उपयोगस्त्वान्त महर्तिकत्वात् नैतावन्तं कालं भवति-वि० वृ० ३१०१ ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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