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जैनधर्म-मीमांसा
किसमें है ? अगर कोई बात सभी शास्त्रोंमें एकसी मिलती है अथवा उनमें जितने मत हों वे सभी वर्तमानमें हितकारी न हों, तो उन सबको छोड़कर उसे कल्याणकारी बात पकड़ना चाहिये । जैसे वर्तमानमें संकुचित जातीयता, स्त्रियोंके पुनर्विवाहका निषेध, पर्दाकी अधिकता, छूताछूतका अनुचित विचार, भूत-पिशाच आदिकी मान्यता, अविश्वसनीय अतिशय, आदि बहुतसे अहितकर तत्त्व आगये हैं, जो कि प्रगतिके नाशक तथा ईर्ष्या और दुरभिमानको बढ़ानेवाले हैं । इन सब कुतत्त्वोंको हटाकर विवेकी बनना चाहिये । एक जैन कहे कि महावीरके जन्म समय इन्द्रादि देवता पूजा करने आये थे, बौद्ध कहें कि बुद्धके जन्म समय ब्रह्मा-विष्णु-महेश मौजूद थे, वैष्णव कहे कि रामके जन्मसमय शिव इन्द्र आदि अयोध्याकी गलियोंके चक्कर काटते थे, तो ये सब बातें अन्ध-विश्वास और मूढ़ताके चिह्न हैं । इनसे विज्ञानकी हत्या होती है, समभाव नष्ट होता है, ईर्ष्या और दुरभिमान बढ़ता है। हमें धर्मको अधिकसे अधिक विज्ञानसंगत बनाना चाहिये और इसी बुनियादपर धर्म तथा समाजका नव-निर्माण या जीर्णोद्धार करना चाहिये।
५–आज मानव-समाज कई तरहके भेदोंमें बँटा हुआ है। साम्प्रदायिक भेद तो हैं ही, साथ ही और भी अनेक तरहके वर्ग बना लिये गये हैं और इस प्रकार वर्गयुद्ध चालू हो गया है । मनुष्य अपना पेट भरके सन्तुष्ट हो जाता तो गनीमत थी; परन्तु वह इतनेमें सन्तुष्ट नहीं होता, वह यह कोशिश करता है कि हमारी जातिके सब मनुष्योंका पेट भरे और हम सब संगठित होकर दूसरोंको लूटें। इसीलिये एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्रको पीस डालना चाहता है। लाखों