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दर्शनाचारके आठ अङ्ग
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भले ही हो जायँ; उसके लिये धृष्टतापूर्वक झूठ नहीं बोलना चाहिये बल्कि सत्यका परिचय देकर दृढ़ता बतलाकर इस प्रकारका संद्व्यचहार करना चाहिये जिससे उपबृंहण ( धर्मवृद्धि ) हो ।
यह धर्मवृद्धि ( उपबृंहण ) धर्मनिन्दा बचाने के लिये थी इसलिये "एक समय इसका नाम उपगूहन प्रचलित * था । परन्तु धर्मनिन्दाके. बचाने के लिये लोगोंने उपबृंहण छोड़ दिया और पापियोंके पापको छुपाने का ढंग पकड़ लिया। इसको लोग जब उपगूहन समझने लगे तब समाज-संशोधकोंका काम कठिन हो गया और ढोंगियोंको अपने पापी जीवनको सुरक्षित रखने के लिये अच्छी ओट मिल गई । इस प्रकार उपगूहन के इस रूपने जब उपगूहनका सर्वनाश करना शुरू कर दिया तब आचार्योंने उपगूहन शब्दको गौण बनाया और उपबृंहणको मुख्यता दी । समन्तभद्र और वट्टकेर आदि के ग्रंथों में इस अंगका नाम उपगूहन ही मिलता है परन्तु बहुतसे + लेखकोंने इसका नाम
* चारित्रप्राभृत में जो आठ अंगोंके नाम लिये गये हैं उसमें इस अंगका नाम उपगूहन ही रक्खा गया है
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णिस्संकिय णिक्कंखिय णिव्विदिगिंछा अमूददिट्ठीय । उवगूहण ठिदिकरणं वच्छल पहावण य ते अड ||७||
समंतभद्रने भी इसका नाम उपगूहन लिखा हैस्वयंशुद्धस्य मार्गस्य बालाशक्तजनाश्रयाम् ।
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वाच्यतां यत्प्रमार्जन्तिं तद्वदन्त्युपगूहनम् || रत्नकरंड श्रा ०
: अज्ञानी या कमजोर ( न कि दम्भी - ज्ञानपापी) व्यक्तियोंके संबंधसे यदि पवित्रमार्गकी निंदा होती हो तो उसे दूर करना उपगूहन है ।
+ पूज्यपादने सर्वार्थसिद्धि में इसका नाम ' उपबृंहण' लिखा है। अकलंकने राजवार्त्तिक ' उपबृंहण' नाम दिया है और लक्षण किया है ' उत्तम क्षमादिभावनया धर्मवृद्धिकरणमुपबृंहणं' अर्थात् उत्तमक्षमादि की बुद्धिसे धर्मवृद्धि