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________________ ३०६ जैनधर्म-मीमांसा आचरण ठीक नहीं था । पंडितप्रवर बनारसीदासजी मुनिवेषियोंके पीछे ही पड़े रहते थे और ढोंगियोंका अच्छी तरह तिरस्कार करते थे । इसके अतिरिक्त और भी बहुत-सी कथाएँ जैनसाहित्यमें मिलेंगी जिनमें दुराचारियोंके दुराचार छुपाये नहीं गये हैं किन्तु खुल्लमखुल्ला उनका विरोध किया गया है। दम्भियोंके दम्भको दृढ़ बनानेके काममें उपगूहन अंग नहीं आ सकता। . __हाँ, असदाचरण भी दो प्रकारका होता है। एक तो दम्भसे धृष्टतापूर्ण, दूसरा कमजोरीसे दीनतापूर्ण । एक मनुष्य पाप करता है और जो उसे पापको छोड़नेकी बात कहता है उसकी निंदा करता है; पापको न स्वीकार करता है, न त्याग करता है और धृष्टतापूर्वक निष्पाको गालियाँ देता है, दम्भका जाल बिछाये रहता है। वह पहिले नम्बरका दुराचारी है। उसका भण्डाफोड़ करना ही उचित है। इसके लिये यही उपगूहन है क्योंकि इससे धर्म और समाज कलंकसे बच जाती है। - दूसरे नम्बरका असदाचार वह है जो कमजोरीसे होता है । उसमें दम्भ या धृष्टता नहीं आती, किन्तु वह दीनतापूर्वक अपने अपराधको स्वीकार करता है और भविष्यके लिये निष्पाप रहनेका वचन देता है। उदाहरणार्थ राजा श्रेणिकने अपने राजमहलमें एक ऐसी आर्यिकाको आश्रय दिया था जो व्यभिचारसे दूषित हो चुकी थी और जिसके एक मुनिसे गर्भ रह गया था। श्रेणिकने पुत्र-जन्म होनेके बाद उसे फिर आर्यिकाओंके पास भेज दिया और आर्थिका बनादिया । पुत्रको राजा श्रेणिकने पाल लिया। ऐसी घटनाओंको प्रकाशत करनेकी जरूरत नहीं है। हाँ, अगर वे प्रकाशित हो जाये तो
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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