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सम्मादर्शनका स्वरूप
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जो लोग जिज्ञासु हैं उनको भी लाभ ही है । परन्तु जो लोग वास्तवमें सम्यग्दृष्टि नहीं हैं फिर भी द्रव्यदृष्टिसे धार्मिक जीवन व्यतीत करते हैं, अरहंत आदिके कल्पित अतिशयोंपर विश्वास रखके भक्तिसे अपने हृदयको पवित्र रखते हैं, परलोकके और मोक्षके अमुक निश्चित रूपकी आशासे परोपकार आदि सत्कर्म करते हैं, उनको तो बड़ा धक्का लगेगा, उनकी आशा निराशामें परिणत हो जायगी, उनका उत्साह मन्द हो जायगा, वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो जायँगे । उनके लिये आपका । यह तथ्य - रूप सत्य भी असत्यका काम करेगा ।
उत्तर - - किंकर्तव्यविमूढ़ तो वे तब हों जब उनके लिये सभी दिशाएँ अन्धकारपूर्ण हों । परन्तु उनके लिये निराशाका कोई कारण नहीं है । स्वर्ग या मोक्षका जो सौदा वे करना चाहते हैं वह सिर्फ कल्याण या सुखके लिये ही तो है । सो स्वर्ग- मोक्षका अभाव नहीं किया गया है, 'वह कैसा है ' सिर्फ इसी बातमें खोज करनेकी आवश्यकता बतलाई गई है। फिर भी इतना तो निश्चित है कि पवित्रात्माका जीवन परलोकमें सुखमय है और अपवित्र आत्माका जीवन दुःखमय है । इसलिये निराशाकी क्या बात है ? जो, लोग बाहिरी अतिशयोंके कारण किसी व्यक्तिकी उपासना करते हैं या प्राचीन होनेके कारण किसी बातपर विश्वास करते हैं उनके धर्मकी इमारत बहुत कच्ची नींव पर खड़ी है। इस प्रकार का अतिशय दिखलाकर कोई भी आदमी उन्हें पथसे विपथमें फेंक सकता है । ऐसे लोगोंको अपने धर्मकी इमारत पक्की नींवपुर खड़ी करन चाहिये । सबसे बड़ी बात तो यह है कि धर्मका फल सिर्फ़ पारलौकिक ही नहीं है, किन्तु, लौकिक, है, प्रत्यक्ष है । ऐहिक भलाई के लिये भी
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