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________________ २५० जैनधर्म-मीमांसा बहुतसे विषय ऐसे हैं जिनके विपरीत-विश्वाससे सम्यक्त्वमें बहुत शीघ्र बाधा पहुँचती है । बहुतसे ऐसे हैं, जिनमें बाधा मुश्किलसे पहुँचती है या नहीं पहुँचती । शीघ्र-बाधक विषयोंको सत्य-रूपमें ही प्रकाशित करनेकी ज़रूरत है । अगर हममें • उन्हें सत्य-रूपमें रखनेकी योग्यता न हो तो वे अनिश्चित भले ही रहें (अनिश्चित रहनेसे उनके सत्य निश्चित होनेका प्रयत्न होता रहता है । ) परन्तु विपरीत निश्चित न होना चाहिये । सर्वज्ञताकी वर्तमान परिभाषासे हमारा विकास रुकता है, देवागम आदिकी घटनाएँ अकर्मण्य और देवैकान्तवादी बननेको उत्तेजित नहीं करती हैं, संसार-शून्यता आदिका विवेचन सत्यकी खोजके लिये उत्तेजित करता है । विश्वकी समस्याको सुलझा के लिये किसी विषयका विपरीत निश्चय या अन्धनिश्चय बहुत बाधक होता है। सबसे बुरी बात तो यह है कि जब हम सत्यके साथ असत्यको मिला देते हैं तब सत्य भी अविश्वसनीय हो जाता है । एक जौहरी अगर असली हीरोंको नकली हीरोंमें मिलाकर रक्खें तो यह अपनी दूकानकी साख खो देगा, उसके असली हीरोंको भी लोग नकली समझकर उनपर उपेक्षा करेंगे । इसी प्रकार अगर हम तर्कविरुद्ध बातोंको प्रामाणिक कह कर दुनियाके सामने रक्खेंगे और जब के असत्य या अविश्वसनीय सिद्ध होंगी तो उनके साथ ही हम सत्य और विश्वसनीय बातोंपर भी विश्वास न करा सकेंगे । हमारे धर्मकी तरफ या सत्यकी तरफ़ लोगोंको कोई आकर्षण न रहेगा, हमारी साख. उठ जायगी । इसलिये. असत्यका निर्दयतासे. संहार करनेकी जापत है । सत्यकी स्वाके लिये यह अत्यन्त आवश्यक है। .. प्रश्न—आपकी इस सत्यकी भक्तिसे सम्यग्दृष्टियोंको लाभा ही है।
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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