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सम्यग्दर्शनका स्वरूप
वही आत्मा है । वह हमारे लिये अदृश्य या अवक्तव्य भले ही हो परन्तु विद्युत की तरह अनुमेय अवश्य है । दो पदार्थों के संघर्षण या सम्मिश्रणसे विद्युत् पैदा होती है परन्तु हम संघर्षण और सम्मिश्रणको विद्युत् नहीं कह सकते । संघर्षण और सम्मिश्रण तो सिर्फ उसका निमित्त कारण है । इसी प्रकार स्नायु, मस्तिष्क आदिकी क्रियाको हम चैतन्य नहीं कह सकते; वह तो सिर्फ उसका निमित्त कारण है ।
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प्रश्न – रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, आकार, गति आदिका विकार चैतन्य नहीं है; वह पृथक् गुण है; यह बात ठीक है । परन्तु जिस प्रकार पुद्गलमें रूपादि गुण हैं उसी प्रकार उसमें एक चैतन्य गुण भी मान लिया जाय तो क्या आपत्ति है ? पुद्गलका प्रत्येक परमाणु चेतन है किन्तु जिस प्रकार परमाणु सूक्ष्म होने से उसके रूपादि गुण अदृश्य रहते हैं उसी प्रकार परमाणुमें रहनेवाले चैतन्यकी मात्रा भी इतनी अल्प होती है कि हमें मालूम नहीं होती । किन्तु जब वे परमाणु मस्तिष्क आदिके रूप में बहुतसे एकत्रित हो जाते हैं तब उनका चैतन्य विशाल रूप में मालूम होने लगता है । इस प्रकार चैतन्य एक अलग गुण होनेपर भी वह पुद्गल से भिन्न आत्म- द्रव्यको सिद्ध नहीं कर सकता ।
उत्तर - गुणके भेदसे ही गुणीमें भेद होता है । इसलिये जब तक पुद्गल परमाणुओं में चैतन्य साबित न हो जाय तब तक चैतन्यवाला द्रव्य एक नया द्रव्य ही मानना पड़ेगा । परमाणुको हम किसी भी इन्द्रियसे ग्रहण नहीं कर सकते । जो पिण्ड इन्द्रियोंसे ग्रहण होते हैं उनके टुकड़े होते हम देखते हैं इसलिये हम अनुमान करते हैं