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कर्मक्षयजातिशय
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अगर विहार होता है तो उनके भक्त श्रावक, अन्नादि लेजाकर दुर्भिक्षका दुःख दूर करते हैं । इसलिये इसे कर्मक्षयजातिशयके स्थानमें देवकृतातिशय कहना चाहिये । तीसरा अतिशय साधा - रण दृष्टिसे ठीक है । ऐसे महात्माओंके पास लोग अपना वैर भूलजायँ और प्राणियोंका वध न किया किया जाय, यह बिलकुल स्वाभाविक है। मालूम होता है कि म० महावीर जहाँ गये होंगे वहाँके कसाइयोंने उस दिन जीववध करना छोड़ दिया होगा, या वहाँ के शासकोंकी तरफसे ऐसी आज्ञा निकली होगी । जैनमुनि आज कल भी ऐसा कराते हैं। पाँचवाँ अतिशय भी स्वाभा विक है । उनका बाह्य प्रभाव और शान्तमुद्रा देखकर राजाओं के भी मस्तक नत होजाते थे । पुराने समय में साधुवर्गका योंही बड़े बड़े सम्राटोंके ऊपर पूर्ण प्रभाव रहता था। बड़े बड़े सम्राटोंका एक अकिचन साधुके चरणोंपर झुक पड़ना भारतीय सभ्यताका एक अंग है । उस ज़माने में यह अंग पूर्ण विकसित अवस्था में था । ऐसे युगमें म० महावीर सरीखे लोकोत्तर तपस्वी साधुके समक्ष स्वचक्र परचक्रका भय कैसे हो सकता था ?
फिर भी अतिशयोंके विषयमें यह बात ध्यान में रखना चाहिये कि ये कुछ प्रकृति अकाट्य नियम नहीं हैं। थोड़े बहुत अपवाद इन अतिशयोंके मिल ही जाते हैं। जैसे गोशालकके द्वारा किया गया उपद्रव । कुछ अतिशय तो ऐसे हैं कि एकाधवार हुए हैं और सदाके लिये मानलिये गये हैं । उदाहरणार्थ- आगे देवकृत अतिशयोंमें गन्धोदककी T वृष्टि नामका अतिशय है । म० महावीरके आने पर कभी किसी नरेशने सुगंधित जलका छिड़काव कराया होगा जोकि सदाके लिये