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जैनधर्म-मीमांसा
गाना ।
पाये जाते इसलिये इन्हें तीर्थङ्करत्वातिशय ही कहना चाहिये । इन अतिशयोंके विषयमें भी दोनों सम्प्रदायोंमें मतभेद है ।
दिगम्बरमान्यता श्वेताम्बरमान्यता १-सौ योजन सुभिक्ष। १-दुर्भिक्ष न पड़े। २-गगन-गमन । २-समवशरणमें देव मनुष्य और
तिर्यंचोंकी कोड़ाकोड़ी समा जाय । ३-प्राणिवधाभाव । ३-बैर न हो, वैर चला जाय । ४-कवलाहार न होना। ४-पच्चीस योजन दूर तक चारों तरफ
रोग न हो, हो तो चला जाय । ५-उपसर्ग न होना। ५-स्वचक्र परचक्र का भय न हो। ६-चार मुख दिखना। ६-मरी न फैले। ७-सर्वविद्याप्रभुत्व । ७-अतिवृष्टि न हो। ८-प्रतिबिम्ब-रहितता। ८-अनावृष्टि न हो। ९-पलकोंकी स्थिरता। ९-भगवानकी वाणी मनुष्य तिर्यंच
और देव अपनी अपनी भाषामें
समझें। १०-नख, केश न बढ़ना। १०-भगवानकी वाणी एक योजन
तक एक समान फैले । ११-सूर्यसे बारहगुणा तेजवाला भामं
डल प्रभुके पीछे मस्तकके पास हो। पहिला, तीसरा और पाँचवाँ अतिशय दोनों सम्प्रदायोंमें करीब करीब समान है । पहिले अतिशयके विषयमें यह कहना सुसंगत होगा कि जहाँ दुर्भिक्ष होता है वहाँ अरहंतका विहार नहीं होता;