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पंचम अध्याय : सात तत्त्व जैनदर्शन में जीव, अजीव आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वों पर श्रद्दान किए बिना सम्यक्त्व नहीं हो सकता है- जिनका विशेष विवरण अधोलिखित है
जीव तत्त्व उत्तमगुणाणधाम, सव्वदव्वाण उत्तम दव्वं। तच्चाण परं तच्चं, जीवं जाणेह णिच्छयदो।
(कार्तिकेयानुप्रेक्षा) इस जीवात्मा को अनेक लोग अनेक प्रकार से कहते हैं, कोई 'यह' कहते हैं, अंग्रेजी में 'सोल', कहते हैं, इसी को आगम में जीव, आत्मा कहते हैं, और कहाँ तक कहें ब्रह्मा, ईश्वर, प्रभु, विभु आदि अनेक नाम हैं। यह जीव तत्त्वों में महातत्त्व, द्रव्यों में महाद्रव्य, पदार्थों में महापदार्थ, उत्तम गुणों का धाम है। आज इसी जीव तत्त्व के बारे में बतायेंगे ध्यान से सुनना। आचार्य शुभचन्द्राचार्य ज्ञानार्णव में कहते हैं
अनन्तः सर्वदा सर्वे जीवराशिर्द्विधा स्थितः।
सिद्धेतरविकल्पेन त्रैलोक्यभुवनोदरे॥6.10।। इन तीन लोक में जीव राशि सदा काल है, और वह दो भेद रूप है- (1) सिद्ध (2) संसारी।
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मुक्त जीव के भेद सिद्धस्त्वेकस्वभावः स्याददग्बोधानन्दशक्तिमान्। मृत्यूत्पादादिजन्मोत्थक्लेशप्रचयविच्युतः।।११।।
(ज्ञा. सर्ग 6) उन दो भेदों में से जो सिद्ध है सो तो दर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्य सहित एक स्वभाव है, और मरण, जनम आदि सांसारिक क्लेशों से रहित हैं। संयम प्रकाश ग्रन्थ में क्षेत्रादि की अपेक्षा जीव के भेद बताये हैं1. क्षेत्र-तद्भव मोक्षगामी (उसी भव से मोक्ष जाने वाले चरमशरीरी) अढाई द्वीप सम्बन्धी भरत
क्षेत्रादि 15 कर्म भूमियों में ही जन्म लेते हैं। अत: जन्म की अपेक्षा से 15 कर्म भूमियों से सिद्ध होते हैं और संहरण (उठाकर अन्यत्र कहीं ले जाने)से अढाई द्वीप से सिद्ध होते हैं।
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