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________________ मिथ्यादृष्टि सासादन और मिश्र इन तीनों गुणस्थानों में ऊपर-ऊपर मंदता से अशुभ उपयोग रहता है। उसके आगे असंयत सम्यग्दृष्टि, श्रावक और प्रमत्त नामक तीन गुणस्थान हैं उनमें परम्परा से शुद्धोपयोग का साधक ऊपर-ऊपर तारतम्य से शुभ उपयोग प्रवर्त्तता है। आगे द्रव्यसंग्रह की 45वीं गाथा की टीका में कहते हैं मिथ्यात्वादि सात प्रकृतियों का उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय होने पर अथवा आध्यात्म भाषा के अनुसार निज शुद्धात्मा के सन्मुख परिणाम होने पर जो जीव शुद्ध आत्मा की भावना से उत्पन्न -विकार-रहित-यथार्थ सुख रूपी अमृत को ग्रहण करने योग्य करके, संसार, शरीर, भोगों में हेय बुद्धि है, अर्थात् संसार शरीर और भोग ये सब त्यागने योग्य हैं ऐसा समझता है, और सम्यग्दर्शन से शुद्ध है, उसको चतुर्थ गुणस्थान में रहने वाला व्रत रहित दार्शनिक कहते हैं। आगे सवैया कहते हैं स्वारत के सांचे परमारथ के सांचे चित्त, सांचे सांचे वे न कहें सांचे जैन मति है। काहू के विरुद्ध नाहि परजाय बुद्धि- नाहि, आतमावेणी न गृहस्थ है न जती है । सिद्धि रिद्धि दीसै घट में प्रकट सदा, अंतर की लच्छिसौ खजांची लच्छपति है। दास भगवन्त के उदास रहे जगत सौ सुखिया सदैव ऐसे जीव समकिती है । जिन्हें निज आत्मा का सच्चा ज्ञान है और मोक्ष पदार्थ से सच्चा प्रेम है, जो हृदय के सच्चे हैं सत्य वचन बोलते हैं तथा सच्चे जैनी हैं। किसी से भी जिनका विरोध नहीं है, शरीर में जिनको अबुद्धि नहीं है आत्म स्वरूप के खोलक हैं, न अणुव्रती हैं न महाव्रती हैं, जिन्हें सदैव ही अपने हृदय में आत्महित की सिद्धि, आत्मशक्ति की ऋद्धि, और आत्मगुणों की वृद्धि प्रकट दिखती है, जो अन्तरंग लक्ष्मी से खजांची लखपती अर्थात् सम्पन्न हैं, जो जिनराज के सेवक हैं, संसार से उदासीन रहते हैं, जो आत्मिक सुख से सदा आनन्द रूप रहते हैं, ऐसे गुणों के धारक सम्यग्दृष्टि जीव हैं। निम्न दृष्टान्तों द्वारा हम आत्मतत्त्व को भली भांति समझ सकते हैं आगम ज्ञान आत्मज्ञान एक विद्वान नाव में बैठकर जा रहे थे। बीच में नाविक से बातचीत करते हुए उन्होंने पूछा 70
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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