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________________ यही वह अस्पर्श योग है, चीजें हैं परन्तु अपनापना नहीं है। चीजों को काम में भी लिया, परन्तु अंतस में नहीं छुआ। यह तभी हो सकता है जब व्यक्ति भेद-विज्ञान के साधे निरंतर जल में कमल की भाँति अछता रहे। ऐसी भेद की भावना पैदा हो, ऐसा साहस पैदा हो तभी जीवन सफल है। भेद-ज्ञान एक फकीर किसी गाँव में ठहरा हुआ था। लोग उनके दर्शन करने आते थे और अपनी शंकाओं का समाधान करते थे। एक आदमी आया और पूछा कि यह कैसे सम्भव है, कि शरीर में दर्द हो अथवा चोट लगे, कोई उसको काटे तब पीड़ा न हो। शरीर को काटने से पीड़ा होगी ही। फिर शरीर आत्मा को अलग-अलग देखने से क्या सिद्धि हुई। फकीर ने कहा- यहाँ दो नारियल पड़े हैं। एक कच्चा है, उसमें पानी है, उसको तोड़कर उसकी गिरी अलग करना चाहो तो नहीं होगी, क्योंकि वह गिरी काठ के साथ जुडी हुई है। यह.दूसरा नारियल है। इसका पानी सूख गया है। इसकी गिरी काठ से अलग हो गई है। इसका काठ तोड़ने पर गिरी को कोई हानि नहीं होगी। नारियल का खोल और गिरी अलग-अलग हो गई है। फकीर ने कहा, यही गजब है-कुछ लोग शरीर के खोल से जुड़े रहते हैं। शरीर की चोट के साथ उनको भी चोट पहुँचती है, जो अपने को शरीर रूपी खोल से अलग समझते हैं, उनके शरीर को काटने पर भी कोई दुःख और पीड़ा नहीं होती। अब अपनी बात है-जिनके भीतर राग पड़ा हुआ है, वे शरीर से जुड़े हुए हैं। जो गीला-पन है वही राग है। जिन्होंने शरीर को ही अपना होना मान रखा है, उनका शरीर और आत्मा का अलग-अलग अस्तित्व होने पर भी वे एक अनुभव करते हैं। वे शरीर के मरण से अपना मरण शरीर की उत्पत्ति से अपनी उत्पत्ति होना मानते हैं। वे शरीर की पीड़ा को अपनी पीड़ा मानते हैं। ऐसा ही उनके अनुभव में आता है। हमें शरीर ही दिखाई देता है। वह जो भीतर है वह इस तरह से जुड़ा हुआ है, कि उनका हमें पता भी नहीं है। संसार के अनेक उदाहरण हैं। बादाम का ऊपर का काठ अलग है, भीतर भी एक-एक पतला छिलका है, जो गर्म पानी में डालने पर अलग होता हैं. और गिरी अलग है। इसी प्रकार चेतन आत्मा अलग है। शरीर ऊपर का काठ सदृश्य है, और रागादि भीतर का छिलका है। जो तपस्या रूपी अग्नि में तपाने से अलग होता है। आत्मा उन सबसे अलग है, उसी प्रकार पिस्ता है, मूंगफली है, सबमें ऐसा ही है। उनको देखकर हमें अपने भीतर का भेद समझ में आ सकता है। गिरी को ग्रहण करना है और बाकी को छोड़ देना है। वह पर ग्रहण करने वाला तीसरा व्यक्ति है। लेकिन आत्मा के विषय में तो वह आप ही अपने को अपने रूप देखने वाला है। 664
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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