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________________ मालिक है। सिकंदर नहीं माना। बोला, 'मेरी तलवार कब काम आयेगी।' यद्यपि लोगों ने कहा कि जो तलवार के भय से चला जाए वह साधु नहीं। उसको साथ ले जाना बेकार है। तो भी सिकंदर ने अपने सेनापति को उसके पास भेजा। सेनापति ने साधु को सिकंदर की आज्ञा बताई। साधु ने कहा-"हम किसी के अधीन नहीं हैं। हम तो केवल अपनी आज्ञा मानते हैं।" सिकंदर खुद आया, नंगी तलवार लेकर। बोला कि आपको हमारे साथ चलना है। अन्यथा हम आपको समाप्त कर देंगे। साधु ने कहा-जिसे तुम समाप्त करोगे हम भी उसे समाप्त होते देखेंगे। जिस प्रकार इस शरीर को तुम कटता देखोगे उसी प्रकार इसे हम भी देखेंगे। क्योंकि तुम जिसे काटोगे वह मैं नहीं हूँ, मैं उससे अलग हूँ। जिस शरीर को तुम साधु समझ रहे हो वह मैं नहीं हूँ। और जो मैं हूँ उसका मरण हो ही नहीं सकता। उसको कोई काट ही नहीं सकता।" __सारे दु:खों का मूल कारण है शरीर में अपनापन। राग-द्वेष की उत्पत्ति का कारण है शरीर में अपनापना। जितना शरीर को अपने रूप में देखोगे, उतना राग-द्वेष-मोह बढ़ेगा और जितना हम शरीर को स्वयं से अलग देखेगे, मोह पिघलने लगेगा। इसलिए हमको खाते-पीते, उठते-जागते, चलते-फिरते, गाते-बजाते हर समय स्वयं को शरीर से भिन्न ही अनुभव करना चाहिए। शरीर आत्मा को एक देखना भ्रम है अज्ञान है, और शरीर आत्मा को अलग देखना विवेक है, सम्यक्ज्ञान है। सिकन्दर अवाक् साधु के वचन सुनता रहा। उसे अनुभव हुआ साधु सत्य ही कह रहे हैं। मेरा पीछे कुछ नहीं एक राजा के महल के पास एक साधु रहता था। राजा एक दिन साधु के पास आया और उससे अपने महल में चलकर रहने की प्रार्थना की। साधने कछ सोचकर राजा की प्रार्थना स्वीकार कर ली। राजा ने साधु के बर्तन में भोजन परोसा, साधु ने भोजन कर लिया। राजा ने साधु को बेशकीमती वस्त्र पहनने की प्रार्थना की, साधु ने स्वीकार कर लिया। सुन्दर पलंग पर सोने के लिए कहा, उसे भी मंजूर कर लिया। कहने का तात्पर्य यह है कि वह राजा की तरह ही ऐशोआराम से रहने लगा। यह देखकर राजा को बहुत बेचैनी हुई। आखिर एक दिन राजा ने पूछ ही लिया कि अब आप में और मुझमें क्या अन्तर है? साधु ने कहा कि घूमने चलो तब आपको बतायेंगे। सबेरे राजा और साधु दोनों घूमने के लिए गए। शहर से दूर आए तो राजा ने कहा, महाराज! वापिस चलिए, महल बहुत दूर छूट गया है। साधु ने कहा कि राजन! आपका तो सब कुछ पीछे छूट गया है, परन्तु मेरा तो पीछे कुछ भी नहीं छूटा। आपमें और मुझमें यही अन्तर है। पीछे आपका महल है रानी है सब कुछ है। आपका सब कुछ पीछे रह गया है। इसलिए आपको वापिस जाना है। परन्तु हमें तो आगे जाना है, हमारा पीछे कुछ भी नहीं है। 65
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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