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________________ आगे सबैया कहते हैं जैसे राजहंस के बदन के सपरसले। देखिये प्रकट न्यारै छीर न्यारौ नीर है। तैसे समकिती की सुदृष्टि में सहज रूप, न्यारौ जीव न्यारौ कर्म न्यारौ ही शरीर है। जब शुद्ध चेतन को अनुभौ अभ्यासे तब, आसै आप अचल न दूजो ओर सीर है। पूरव कर्म उदय आय के दिखाई देह, करता न होय तिनको तमास गीर है। जिस प्रकार हंस के स्पर्श होने से दूध और पानी पृथक्-पृथक् हो जाते हैं, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीवों की सुदृष्टि से, स्वभावत: जीव कर्म और शरीर भिन्न भाते हैं। जब शुद्ध चैतन्य के अनुभव का अभ्यास होता है, तब अपना अचल आत्मद्रव्य प्रतिभसित होता है। उसका किसी दूसरे से मिलाप नहीं दिखता। हाँ पूर्वबद्ध कर्म उदय में आए हुए दिखते हैं, पर अहंबुद्धि के अभाव में उनका कर्ता नहीं होता दर्शक रहता है। भेद विज्ञान जग्यौ जिनके घट, सीतल चित्त भयो जिमिचंदन। केलि करै, सिव मारग में,जग माहिं जिनेसुर के लघु नंदन। सत्यसरूप सदाजिन्हके, प्रकटयौ अवदात मिथ्यात्व-निकंदन। सांत दसा तिन्ह की पहिचानि, करै कर जोरि बनारसि वंदन॥ जिनके हृदय में निज-पर का विवेक प्रकट हुआ है, जिनका चित्त चंदन के समान शीतल है अर्थात् कषायों का आताप नहीं है, जो निज-पर विवेक होने से मोक्षमार्ग में मौज करते हैं, जो संसार में अरहंत देव के लघु पुत्र हैं, अर्थात् थोड़े ही काल में अरहंत पद प्राप्त करने वाले हैं। जिन्हें मिथ्यादर्शन को नष्ट करने वाला निर्मल सम्यग्दर्शन प्रकट हुआ है। उन सम्यग्दृष्टि जीवों की आनन्दमय अवस्था का निश्चय करके पं. बनारसीदास हाथ जोड़कर नमस्कार करते हैं। शरीर को मरते देख सिकन्दर जब भारत से वापिस लौट रहा था तो वह कोई अद्भुत चीज यूनान में ले जाना चाहता था। किसी ने बताया कि हिमालय की तराई में एक महान साधु बड़ा अद्भुत है। परन्तु उसे ले जाना असम्भव है। क्योंकि वह किसी की आज्ञा मानने वाला नहीं है। अपने मन का 64
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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