________________
मुनियों के लिए कहते हैं
आगमहीणो समणो णेवप्पाणं परं विषाणादि । अविजाणतो अट्ठे खवेदि कम्माणि किध भिक्खू ॥
( आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसार )
जो श्रमण आगमहीन हैं वे स्वपर को नहिं जानते। वे कर्मक्षय कैसे करें जो स्व-पर को नहिं जानते ॥
यहाँ कोई प्रश्न करेगा भाई ये अज्ञानीपना तो मेरे में भी है अब मुझे क्या करना चाहिए
वपुष्यात्मेति विज्ञानं वपुषा घटयत्यमून् । स्वस्मिन्नात्मेति बोधस्तु भिनत्यङ्गं शरीरिणाम् ॥
शुभचन्द्र, ज्ञानार्णवः, 32.20
शरीर में यह आत्मा है, ऐसा ज्ञान तो जीवों को शरीर सहित करता है, और आप में ही आप हैं अर्थात् आत्मा में ही आत्मा है, इस प्रकार का विज्ञान जीवों को शरीर से भिन्न करता है। आगे और भी कहते हैं
तनावात्मेति यो भावः स स्याद्बीजं भवस्थितेः ।
बहिर्वी ताक्षविक्षेपस्तत्यक्त्वान्तर्विशेत्ततः ।। ३२.२२ ।।
शरीर में ऐसा जो भाव है कि "यह मैं आत्मा ही हूँ" ऐसा भाव संसार की स्थिति का बीज है। इस कारण, बाह्य में नष्ट हो गया है, इन्द्रियों का विक्षेप जिसके ऐसा पुरुष उस भावरूप संसार के बीज को छोड़कर अंतरग में प्रवेश करो, ऐसा उपदेश है।
द्रव्यकर्म मल से रहित, भाव कर्म के रहित और नोकर्म से रहित चैतन्यरूप आत्मा निश्चय से सिद्ध जानना कहा गया है
द्रव्यकर्म - मलैर्मुक्तं भावकर्मविवर्जितम् । नोर्कम-रहितं सिद्धं निश्चयेन चिदात्मकम् ॥
63
(परमानन्दस्तोत्रम् |
अक्षय है शाश्वत है आत्मा, निर्मल ज्ञान स्वभावी है। जो कुछ है बाहर सब पर है, कर्माधीन बिनासी है ॥ २६ ॥