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________________ निर्जरा के दो भेद हैं। 1. द्रव्य और 2. भाव। आत्मा के जिन परिणामों से कर्मों का एक देश छूटता 'उन परिणामों को भाव निर्जरा कहते हैं। ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्मों का एक देश छूटना द्रव्य निर्जरा है। विशेष- द्रव्य और भाव निर्जरा के भी सविपाक (अकाम) तथा अविपाक (सकाम) निर्जरा के भेद से दो-दो प्रकार हैं। कर्मों की स्थिति पूर्ण होने पर अर्थात् फल देकर आत्मा से कर्मों का एक देश छूटना सविपाक निर्जरा कहलाती तथा तपश्चरण से कर्मों का एक देश छूटना अविपाक निर्जरा कहलाती है। मोक्ष तत्त्व सव्वस्स कम्मणो जो, खयहेदू अप्पणो हु परिणामो । यो स भावमोक्खो, दव्वविमोक्खोय कम्मपुहभावो ॥ - द्रव्यसंग्रह, 37 आत्मा का जो परिणाम समस्त कर्मों के क्षय होने का कारण है वह परिणाम ही भावमोक्ष जानना चाहिए और ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों का छूट जाना ही द्रव्यमोक्ष है। पुण्य और पाप पदार्थ सुहअसुहहभावजुत्ता, पुण्णं पाबं हवंति खलु जीवा । सादं सुहाउ णामं, गोदं पुण्णं पराणि पावं च ॥ - वव्यसंग्रह, 38 अच्छे और खोटे परिणामों सहित जीव निश्चय से पुण्य रूप और पाप रूप होते हैं। सातावेदनीयशुभ आयु, शुभ नाम, और उच्च गोत्र पुण्य रूप हैं तथा शेष सब कर्म पाप रूप हैं। हेय और उपादेय की पहचान 1. जीवतत्त्व - उपादेय अर्थात् ग्रहण करने योग्य । 2. अजीव तत्त्व - ज्ञेय अर्थात् जानने योग्य। 3. आस्रव तत्त्व - हेय अर्थात् छोड़ने योग्य। 4. बन्धतत्त्व - पहिचान कर अहितकर माने। 5. संवरतत्त्व - पहिचान कर उपादेय माने। 6. निर्जरातत्त्व - पहिचान कर हित कारक माने। 7. मोक्षतत्त्व - पहिचान कर उसको परम उपादेय माने। 60
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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