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सातों तत्त्वों को इन दृष्टान्तों द्वारा भी समझा जा सकता है
सच्ची श्रद्धाः (नाव वाला) समुद्र में नाव चल रही थी, उसमें एक मनुष्य बैठा है, उस में 57 छिद्र हैं। इन छिद्रों के द्वारा पानी आ रहा है। अब उस मनुष्य ने 57 छिद्र बन्द कर दिए। तब पानी आना बन्द हो गया, अब चिन्ता पहले पानी की हो रही है। कुछ तो हाथों से निकाल दिया (अविपाक, सकाम निर्जरा) कुछ स्वयं ही सूख गया (सूर्य की गर्मी द्वारा) (सविपाक, अकाम निर्जरा), तब वह नाव पानी से बिल्कुल खाली हो गई और वह नाव समुद्र से पार हो गई।
इसी प्रकार-समुद्र तो यह संसार है, नाव अजीव तत्त्व है। मनुष्य जीव तत्त्व है। नाव के छिद्र आस्रव तत्त्व है, नाव में पानी रुक रहा है, वह बन्ध तत्त्व है, पानी को डाँट के द्वारा रोकना संवर तत्त्व है, पानी को निकालना निर्जरा तत्त्व है, स्वतः पानी सूखना सविपाक निर्जरा है, हाथों से निकालना अविपाक निर्जरा है अब मनुष्य अकेला रह गया, नाव समुद्र से पार हो गई। पार हो जाने के बाद मोक्ष तत्त्व हो जाता है। इसलिए उदाहरण को समझकर श्रद्धा करनी चाहिए।
दिल्ली जाने वाला मनुष्य जिस प्रकार किसी मकान में कोई मनुष्य रहता है। पुरुष को समझो जीव, वह पुरुष जिस घर के अन्दर रहता है, उस घर को समझो अजीव। उसी प्रकार इस कमरे रूपी शरीर में आत्मा जीव है, और कमरा अजीव अर्थात् शरीर अजीव है, अब इस मनुष्य के मकान में एक घण्टी लगी है, वह उस घण्टी को बजाकर बुलाता है। घण्टी बजी मेहमान आने शुरू हो गए, एकदम आते जा रहे हैं, क्योंकि घण्टी बार-बार बजाई जा रही है, मेहमान आने से क्यों हटें, जब उनको बुलाया जा रहा है, उस मनुष्य के यहाँ तो मेहमान आ रहे हैं, लेकिन आत्मा में क्या आ रहे हैं? कर्म आस्रव आ रहे हैं। राग द्वेष तो हुए मन के द्वार निमंत्रणवचन हुए घण्टी, तथा काय हुई कमरा, इन तीनों के द्वारा ही तो मेहमान आते हैं अर्थात् आस्रव होता है। मन, वचन, काय से, उस मानव को कुछ होश आई अरे ये तो जम के बैठते जा रहे हैं यह हुआ बन्ध तत्त्व। उसने विवेक से सोचकर, मन, वचन, काय रूपी दरवाजे बन्द कर दिए यह हुआ संवर तत्त्व। मेहमान आने बन्द हो गए। अब वह सोचता है कि बाहर से मेहमान आना बन्द हो गये लेकिन अभी अन्दर काफी मेहमान जमे बैठे हैं। अब उसने उनको कठोर बोलना शुरू कर दिया वे उठ-उठकर जाने लगे, यह हुई निर्जरा। जब सब मेहमान चले गए तब उसे जहाँ जाना था वहाँ चला गया, यह हुआ मोक्ष तत्त्व।
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